Book Title: Anekant 1974 Book 27 Ank 01 to 02
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 14
________________ जैन साहित्य नाती की अपेक्षा दादा, दादा की अपेक्षा नाती, छोटे की हाथी खम्भे जैसा है जिसने पूछ पकड़ी वह चिल्लाकर अपेक्षा बड़ा और बड़े की अपेक्षा छोटा आदि कहा जाता कहने लगा कि हाथी रस्से जैसा है जिसने उसकी छाती है। इस तरह उसमें पितृत्व, अपितृत्व, पुत्रत्व, अपुत्रत्व, पकडी वह बोला हाथी तो दिवाल जैसा है। चौथा बोला मातुलत्व-अमातुलत्व, भागिनेयत्व-अभागिनेयत्व आदि अनेक नही हाथी तो खूटी जैसा है, जिसने हाथी के दांत पकड़े धर्म पुगल रूप में उस पुरुष में उपलब्ध है या वह उनका थे । पाचवां कहने लगा हाथी मूसल की तरह है, इसने समुदाय है। ये सभी धर्म पुद्गल इसमें स्वरूपता है कल्पित उसकी सूड ही पकड़ी थी। छठा बोला सब तुम झूठ नहीं। क्योकि उनसे तद् तद व्यहार रूप क्रिया होती है। बोलते हो, हाथी तो सूप जैसा है इसने उसके कान पकडे अमतचन्द्र लिखते है-जैसे ग्वालिन मन्थन करने की थे उसी बीच एक पादमी प्राया जिसने अपनी पाखो से रम्सी के दो छोरो मे से कभी एक ओर कभी दूसरे को हाथी को देखा था बोला भाई ! तुम सब ठीक ही कहते अपनी ओर खेचती है, उसी प्रकार अनेकान्त पद्धति भी हो, अपनी अपनी अपेक्षा तुम सब सही हो, पर इतर को कभी एक धर्म को प्रमुखता देती है और कभी दूसरे धर्म गलत मत कहो, सबको मिलाने से ही हाथी बनता है को। वक्ता जब वचन द्वारा वस्तु के विवक्षित धर्म को इतर का निराकरण करने पर तो हाथी का स्वरूप अपूर्ण रहेगा। स्वाद्वाद कहता है कि अनित्यवाद, नित्यवाद, लेकर इसे कहता है तो वह वस्तु उम धर्म वाली ही नहीं सद्वाद और असद्वाद प्रादि वस्तु के एक एक अश के प्रकाहै, उसमे उस समय अन्य धर्म भी विद्यमान है जिनका शन है और यह तथ्य है कि अनित्य, नित्य, सद्-असद् उसे उस समय विवक्षा नहीं है । "अग्नि दाहक है", कहने आदि पूदगल धर्मो का उसमे सद्भाव है। पर अग्नि की पाचकता, प्रकाशकता प्रादि शविनयो.. ममता का भव्य भवन अहिसा और अनेकान्त को म्वभावो का लोप नही होता अपितु अविवक्षित होने में भित्ति पर ग्राधारित है जब जीवन मे हिसा अनेकान्त वे गौण हो जाते है। एकान्तवादी का मन्तव्य है कि जो वस्तु सत् है, वह मूर्त रूप धारण करता है तब जीवन में समता का मधुर मू कभी भी असत् नही हो सकती, जो नित्य है वह कभी भी सगीत झंकृत होने लगता है। जैन सस्कृति का सार यही अनित्य नही हो सकती। इस प्रश्न के समाधान में है कि जीवन मे अधिकाधिक समता को अपनाया जाय प्राचार्य समन्तभद्र ने कहा है-विश्व की प्रत्येक वस्तु और 'तामस' विषम भाव छोडा जाय तामस समता का ही तो उल्टा रूप है । समता जैन सस्कृति की साधना का स्वचतुष्टय की अपेक्षा लिए है और चतुष्टय की अपेक्षा प्राण है और प्रागम साहित्य का नवजीवन है। भारत के असत् है। इस प्रकार की अव्यवस्था के अभाव में किसी उत्तर मे जिस प्रकार चांदनी की तरह चमचमाता हुमा भी तत्व की सुन्दर व्यवस्था सम्भव नही है। प्रत्येक हिंगगिरि का उत्तग शिखर शोभायमान है वैसे ही जैन वस्तु का अपना निजी स्वरूप होता है जो अन्य के स्वरूप सस्कृति के चिन्तन मनन के पीछे समत्व योग का दिव्य से भिन्न होता है । अपना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव है और भव्य शिखर चमक रहा है जैन संस्कृति का यह पर वह चतुष्टय है। जैसे एक घड़ा स्वदव्य (मृत्तिका) गम्भीर उदघोष रहा है कि समता के प्रभाव मे प्राध्याकी अपेक्षा से है, पर क्षेत्र की अपेक्षा से नहीं है, स्वकाल स नहा ह, स्वकाल त्मिक उत्कर्ष नही हो सकता और न जीवन मे शान्ति ही जिसमे वह है कि अपेक्षा से घट का सद्भाव है पर काल ट का सद्भाव ह पर काल प्राप्त हो सकती है। भले ही कोई साधक उग्र तपश्चरण की अपेक्षा से असदभाव है। अपने स्वभाव की अपेक्षा से करले, भले ही उसकी वाणी मे द्वादशांगी का स्वर मुखघट का भस्वित्व है, पर भाव की अपेक्षा से अस्तित्व नहीं है घट की तरह अन्य सभी वस्तुओं के सम्बन्ध मे यही रित हो, यदि उसके आचरण मे, वाणी में, और मन मे ममझना चाहिए। जब एकान्त का कदाग्रह त्याग कर समता की सुर-सरिता प्रवाहित नही हो रही है, तो उसका अनेकान्त का आश्रय लिया जाता है तभी सत्य तथ्य का । समस्त क्रिया काण्ड और आगमों का परिज्ञान प्राण रहित सही निर्णय होता है। ककाल की तरह है । प्रात्म विकास की दृष्टि से उसका इस अनेकान्त को प्रकट करने वाला एक दृष्टान्त कुछ भी मूल्य नहीं है। अत्मविकास की दृष्टि से जीवन और प्रस्तुत है—एक जगह छह अन्धो ने एक हाथी को के कण कण मे, मन के अणु अणु मे समता की ज्योति पकड कर अपने अपने स्पर्शानुभव से उसके स्वरूप की जगाना आवश्यक है। साध्य भाव को जीवन मे साकार अवधारणा की । जिसने हाथी के पैर पकड़े उसने कहा कि रूप देना ही जन संस्कृति की आत्मा है।

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