________________
मुनिश्री की परिभाषा में जीवन का अर्थ साँस लेना ही नहीं
है । जीवन का अर्थ है, दूसरों को अपने अस्तित्व का अनुभव कराना । यह अनुभव ईंट पत्थरों के ढेर खड़े करके या शोषण करके नहीं कराया जा सकता । इसका उपाय यह है कि हम दूसरों के लिए साँस लेना सीख लें । अपने लिए सभी सांस लेते हैं, किन्तु जीवित वह है, जो दूसरों के लिए साँस लेता है ।
-
" जो विकारों का दास है, वह पशु है, जो उन्हें जीत रहा है वह मनुष्य है, जो अधिकांश जीत चुका है, वह देव है और जो सदा के लिए जीत चुका है, वह देवाधिदेव है ।" जीवन विकास का उपर्युक्त क्रम कितना स्पष्ट और प्रेरक है ।
मानव को सम्बोधित करके वे कहते हैं- "मानव ! तेरा अधिकार कर्तव्य करने तक है, फल पाने तक नहीं । तू जितनी चिन्ता फल की रखता है, उतनी कर्त्तव्य की क्यों नहीं रखता ।" मानव जिस दिन इसे समझ लेगा, कष्टों से छुटकारा पा जाएगा ।
मानव जीवन का ध्येय बताते हुए वे चिरन्तन सत्य को नगारे की चोट के साथ दुहराते हैं- “मानव जीवन का ध्येय त्याग है, भोग नहीं; श्रेय है, प्रेय नहीं । भोग- लिप्सा का आदर्श मनुष्य के लिए सदैव घातक है, और रहेगा ।" उपदेश पुराना है, किन्तु मानव ने अभी तक सुना कहाँ है ।
मुनिश्री को पूर्ण विश्वास है- “जिस प्रकार धरती के नीचे सागर बह रहे हैं, पहाड़ की चट्टान के नीचे मीठे झरने बहते हैं, उसी प्रकार स्वार्थी मन के नीचे भी मानवता का अमर स्रोत बह रहा है । आवश्यकता है, थोड़ा-सा खोद कर देखने भर की ।”
एक बूंद ने यदि किसी प्यासे रज-कण की प्यास बुझा दी, तो वह सफल हो गई, धन्य हो गई । सफलता का रहस्य आधिपत्य में नहीं, बल्कि उत्सर्ग में है । उत्सर्ग कोई छोटा या बड़ा नहीं होता ।
Jain Education International
[
११ ]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org