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भारत की परम्परा यथार्थवादी है । यहाँ सत्य केवल आदर्शवाद की वस्तु नहीं है, अपितु वास्तविकता का एक जाज्वल्यमानस्तंभ है । वह शुभ भी है और अशुभ भी । पुण्य भी सत्य है, और पाप भी सत्य है। देवी सम्पदाएँ भी सत्य हैं, और आसुरी भी। अतः सत्यमात्र उपादेय नहीं हो सकता। इसलिए मुनिश्री सत्य को तभी उपादेय बताते हैं, जब उसके साथ शिवम् का सामञ्जस्य हो।
अहिंसा का स्वरूप बताते हुए आप लिखते हैं-- "अहिंसा, साधना-शरीर का हृदय भाग है। वह यदि जीवित है, तो साधना जीवित है, अन्यथा मृत ।" उनकी अहिंसा निष्क्रय नहीं, बल्कि सक्रिय है-"तलवार मनुष्य के शरीर को झुका सकती है, मन को नहीं । मन को झुकाना हो, तो प्रेम के अस्त्र का प्रयोग करो।" ।
"जो तलवार से ऊँचे उठेंगे, वे तलवार से ही नष्ट हो जाएँगे।" ईसा के इस बाक्य को उद्धृत करके मुनिश्री ने ईसाई तथा जैन दोनों धर्मों के मर्म को एक ही शब्द में प्रकट कर दिया है। ___जीवन की परिभाषा करते हुए वे कहते हैं "चलना ही जीवन है।" चाहे व्यक्ति हो या समाज, धर्म हो या राष्ट्र, जो चल रहा है, समय के साथ कदम बढ़ाये जा रहा है, जीवित है। जहाँ अटका, वहीं मृत्यु । यदि जीवन में सफलता प्राप्त करनी है, तो विश्वास, प्रेम और बुद्धि को साथ लेकर चलो। फिर प्रत्येक कार्य में आनन्द आएगा । समस्त जगत् रसमय हो जाएगा। कठिनाइयों से जूझने में भी आनन्द आएगा। फिर असफलता का प्रश्न ही खड़ा नहीं होगा । यही सफलता का मूलमन्त्र है।
मानव सिद्धि से पहले प्रसिद्धि की कामना करता है, यही उसकी भूल है । प्रसिद्धि तो सिद्धि का आनुसंगिक फल है, जैसे गेहूँ के साथ भूसा । गेहूँ उगेगा तो भूसा अपने आप मिल जाएगा। मात्र भूसा प्राप्त करना चाहोगे, तो सारा प्रयत्न निष्फल होगा।
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