Book Title: Amar Vani Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith AgraPage 11
________________ मनुष्य, जीवन की विषमताओं और द्वन्द्वों से पराभूत होकर कष्टों का अनुभव करता है। यदि उन सब में समरसता का अनुभव करना है, तो ऊँचे उठकर देखने की आदत डालनी चाहिए। अध्यात्म-जीवन के कुतुब-मीनार पर चढ़कर मुनिश्री ने यही अनुभव किया है । अर्थात् अभेदानुभूति का मूल मन्त्र है-दूर रहकर तटस्थ वृत्ति से देखना । घास को आग का डर हमेशा बना रहता है, किन्तु सोने को कोई डर नहीं होता। वह तो आग में पड़कर ओर निखरता है। चोटें खाकर और गलकर नया सुन्दरतर से सुन्दरतम रूप पा लेता है। यह मानव जीवन के लिए कितना मार्मिक संदेश है ! प्रतिज्ञा जीवन - विकाश का अनिवार्य अंग है। किन्तु वह तभी, जब उसे पूरी तरह निभाया जाए। प्रतिज्ञा लेकर तनिक - सी प्रतिकूलता आने पर उसे तोड़ देना जीवन के खोखलेपन को सूचित करता है । 'आन लो और उस पर अड़े रहो' यही जीवन का महान् तत्त्व है। जीवन • व्यवहार आदान - प्रदान पर चलता है ! प्रदान के बिना आदान शोषण है, आदान के बिना प्रदान देवत्व है। मानवता में दोनों का सन्तुलन होता है। गाय की सेवा करके उससे दूध प्राप्त करना व्यवहार है। बिना कुछ दिए लेना अत्याचार है। जीवन-संगीत के दो स्वर हैं- "कठोरता और मृदुता ! जो व्यक्ति इन दोनों का ठीक प्रयोग करना जानता है, वही मधुर ध्वनि निकाल सकता है।" हृदय के अन्तस्तल से वे पुकार कर कहते हैं- “यदि किसी को हँसा नहीं सकते, तो किसी को रुलाओ भी मत । किसी को आशीर्वाद नहीं दे सकते, तो किसी को शाप तो न दो !" संसार को विष समझ कर भागने वालों से वे कहते हैं"भागना जीवन की कला नहीं, कायरता है। कला तो विष को अमृत बना देने में है। सोमल का जहर मर जाए, तो वही संजीवनी औषध बन जाता है।" [ १० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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