Book Title: Agam Sudha Sindhu Part 08
Author(s): Jinendravijay Gani
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala
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________________ प्रकीर्णकानि // 10 भीमरणसमाधिप्रकीर्णकम् ] [80 य अब न एगंत-बद्धमाणेहिं / संलिह सरीरमेयं आहारविहिं पयंणुयंतो // 178 // तत्तो अणुपुव्वेणाहारं उवहिं सुग्रोवएसेणं / विविह-तवोकम्मेहि य इंदिय-विकीलियाईहिं // 17 // तिविहाहिं एसणाहि य विविहेहि थभिग्गहेहिं उग्गेहिं / संजम-मविराहिंतो जहाबलं संलिह सरीरं // 180 // विविहाहि व पडिमाहि य बलवीरियजई य संपहोइ सुह। तायोवि न बाहिती जहक्कम संलिहंतम्मि // 181 // छम्मासिया जहन्ना उकोसा बारिसेव वरिसाइं / आयंबिलं महेसी तत्थ य उकोसयं चिंति // 182 // छट्टटुम-दसम-दुगलसेहिं भत्तेहिं चित्तकट्ठोहिं / मियलहुकं श्राहारं करेहि आयंबिलं विहिणा // 183 // परिवडियोवहाणो राहारु-विराविय-वियडपासुलि-कडीयो / संलिहिय-तणुसरीरो अन्झप्परयो मुणी निच्चं // 184 // एवं सरीरसंलेहणा-विहिं बहुविहंपि फासिंतो। अज्झवसाण-विसुद्धिं खणंपि तो मा पमाइत्था // 185 // अज्झवसाण-विसुद्धी-विवजिया जे तवं विगिट्टमवि / कु वंति बाललेसा न होइ सा केवला सुद्धी // 186 // एयं सराग-संलेहणा-विहिं जइ जई समायरइ। अझप्प-संजुयमई सो पावइ केवलं सुद्धिं // 187 // निखिला फासेयव्वा सरीरसंलेहणा-विही एसा / इत्तो कसायजोगा श्रमपविहिं परम वुच्छं // 188 // कोहं खमाइ माणं मदवया अजवेण मायं च। संतोसेण व लोहं निजिण चत्तारिवि कसाए // 186 / कोहस्स व माणस्स व मायालोमेसु वा न एएसिं / वचई वसं खणंपि हु दुग्गइगइ-बड्डणकराणं // 110 // एवं तु कसायाग्गि संतोसेणं तु विज्झवेयव्यो / रागहो. सपवत्तिं वज्जेमाणस्स विज्झाइ // 111 // जावंति केइ ठाणा उदीरगा हुति हु कसायाणं / ते उ सया वजंतो विमुत्तसंगो मुणी विहरे // 112 // संतोवसंतधिइमं परीसहविहिं व समहियासंतो। निस्संगयाइ सुविहिय ! संलिह मोहे कसाए य // 113 // इट्टाणिठे सु सया सदफरिसरसरूवगंधेहिं / सुहदुवख-निविसेसो जियसंग-परीसहो विहरे // 114 // समिईसु पंचस
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