________________ आगम निबंधमाला साथ अपेक्षा का तत्त्व भी निहित है / वह यह है कि इन महान वैराग्य पूर्ण विकट तप साधनाओ के साथ सबसे बडा विवेक यह भी होना चाहिये कि ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इस शरीर निरपेक्ष निर्मोह साधना में आत्मा के समाधि भावों की उच्चता, अंतर्मन की प्रसन्नता और उत्साह बराबर है या नहीं ? आत्म परिणाम, आत्म समाधि सुंदरतम है तो उस उत्कट साधना को बढाते ही रहना चाहिये और यदि आत्म समाधि में, आत्म उच्च भावों में रुकावट प्रतीत हो, शारीरिक क्षमता का उल्लंघन हो तो कुछ शरीर को विराम देकर पुनः साधना को बलशील बनाने का विवेक रखना चाहिये / विवेक लक्ष्य नहीं होने पर अविवेक हो जाने पर कभी नुकशान भी हो सकता है। . इस प्रकार सर्वज्ञोक्त इस जिनशासन में उत्कट और घोर साधना में भी विवेक सर्वत्र अपेक्षित है / अपनी वास्तविक क्षमता है तो घोर से घोर दुष्कर तप साधना के लिये भी निषेध नहीं, प्रेरणा ही है। ऐसे प्रेरक कुछ आगम वाक्य ये हैं- इह आणाकंखी पंडिए अणिहे, एगं अप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं / कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं, जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ / एवं अत्तसमाहि, अणिहे / - जिनाज्ञा की आकांक्षा, अपेक्षा रखने वाला पंडित मुनि अपनी आत्मा के एकत्व का विचार कर शरीर से अपने भिन्नत्व का विचार कर शरीर को धुन डाले / मतलब यह है कि कर्म क्षय करने में शरीर को लगा देवे, कृश कर देवे, जीर्ण कर देवे / जिस तरह अग्नि जीर्ण काष्ट को शीघ्र नष्ट कर देती है, उसी तरह शरीर के माध्यम से कर्मों को नष्ट कर दे / ___ यहाँ अंतिम वाक्य में विवेक और शरीर की अपेक्षा की बात कही है कि एवं अत्तसमाहिए- इस प्रकार करते हुए भी समाधि का ध्यान रखे / किंतु अणिहे- शरीर के प्रति मोह भाव नहीं करते हुए / इस प्रकार शरीर की निर्मोहता के साथ आत्म समाधि-सहनशीलता = प्रसन्नता का भी निर्देश किया गया है। अन्य भी वाक्य इस प्रकार है - आवीलए पवीलए णिप्पीलए, जहित्ता पुव्व संजोग, हिच्चा उवसमं / विगिंच मंस सोणियं, एस पुरिसे दविए, वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए। | 32