Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 213
________________ आगम निबंधमाला विषय है / मन-वचन भी रूपी ही है अरूपी नहीं है / इस विषय को दर्शाने वाली एक घटना यहाँ चौथे उद्देशक में वर्णित है / वह इस प्रकार है- एक बार दो देव भगवान की सेवा में आये मन से ही वंदन नमस्कार किया, मन से ही प्रश्न पूछा, भगवान ने भी मन से उत्तर दिया / देव संतुष्ट हुए / वंदन नमस्कार कर यथास्थान बैठकर पर्युपासना करने लगे / गौतम स्वामी को जिज्ञासा हुई कि ये देव किस देवलोक से आये ? गौतम स्वामी उठकर भगवान के समीप गये, वंदन करके पूछना चाहते ही थे कि स्वतः ही भगवान ने स्पष्टीकरण कर दिया कि तुम्हें यह जिज्ञासा हुई है / ये देव ही तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान कर देंगे / गौतम स्वामी ने पुनः भगवान को वंदन नमस्कार किया और देवों के निकट जाने के लिये तत्पर हुए / देवों ने अपनी तरफ आते हुए गौतम स्वामी को देखकर स्वयं प्रसन्न वदन गौतम स्वामी के निकट गये वंदन नमस्कार किया और कहा- हम आठवें सहस्रार देवलोक के देव हैं / हमने मन से ही वंदन नमस्कार करके प्रश्न पूछा समाधान भी मन से ही पाया और पर्यपासना कर रहे हैं / हमारा प्रश्न था भगवान के शासन में भगवान के जीवन काल में कितने जीव मोक्ष जायेंगे ? उत्तर मिला कि 700 श्रमण इस भव में मोक्ष जायेंगे / [ इस पाठ के अनुसार गौतम स्वामी के 1500 केवली को लेकर भगवान के समवशरण में आने की बात बराबर नहीं है / क्यों कि उस समय भगवान का शासन ही चल रहा था / ] ____ यहाँ देवो संबंधी वर्णन करते हुए यह भी समझाया गया है कि भले यह स्पष्ट है कि देव असंयत होते हैं, उनमें 4 गुणस्थान ही होते हैं / फिर भी भगवान ने गौतम स्वामी के पूछने पर यही समझाया कि देवों को अर्थात् उनके समक्ष उन्हें असयंत नहीं कहना क्यों कि वह निष्ठुर वचन है / पुण्यवान पुरुषों को उनके समक्ष निष्ठुर वचन कहना अविवेक एवं असभ्यता का द्योतक है / उसी सत्य भाव को अन्य शब्दों में, भाषा में कहा जा सकता है अर्थात देव को नोसंयत कहा जा सकता है / संयत और संयतासंयत ये दोनों भी देवता के लिये नहीं कहे जा सकते हैं / क्यों कि ऐसा कहने में असत्य वचन का दोष लगता है / / 213

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