Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 226
________________ आगम निबंधमाला स्थिति वाले नवनिकाय के देवों को ही दूसरी नरक में जाना समझना और एक पल्योपम तक की स्थिति वालों को प्रथम नरक तक ही जाना समझना चाहिये / उपरोक्त वर्णन से यह तात्पर्य समझना चाहिये कि एक पल्योपम तक की स्थिति वाले देव प्रथम नरक तक, अनेक पल्योपम वाले देव दूसरी नरक तक और एक-दो सागरोपम की स्थिति वाले देव तीसरी नरक तक जा सकते है। यों वैमानिक में भी स्थिति के अनुपात में चोथी, पाँचवीं, छट्ठी आदि नरक तक जाना समझना चाहिये / इससे यह भी समझ सकते हैं कि एक पल्योपम की स्थिति वाले परमाधामी के लिये तीसरी नरक तक जाने का कहने की परंपरा को पकड़े रखना कोई जरूरी नहीं है / वास्तव में वे अपनी स्थिति रिद्धि क्षमता अनुसार प्रथम नरक तक ही जा सकते हैं / निबंध-१२३ प्राप्त शुद्धाहार शुद्धाशुद्ध हो जाता गोचरी में ग्रहण किये हुए निर्दोष खाद्यपदार्थ या पेयपदार्थ को श्रमण-१. अच्छे मनोज्ञ पदार्थ से खुश-खुश होवे; उस आहार की, दाता की, बनाने वाले की प्रशंसा, अनुमोदना करे; उन पुद्गलों को आसक्ति भाव से, मूर्च्छित होकर, गृद्धिपना करके खावे तो वह उस निर्दोष प्राप्त आहार को इंगाल नामक दोष युक्त कर लेता है। 2. इसी तरह अमनोज्ञ पदार्थ के संयोग में मन में दुःखी होवे; अप्रीति भाव करे; शिर, हाथ शब्द आदि से नाखुशी दिखावे; क्रोधमय नाराजी खेद खिन्नता दिखावे; इस प्रकार बिना मन, दु:खी मन से आहार करे तो वह उस निर्दोष प्राप्त आहार को धूम दोष युक्त बना लेता है / 3. प्राप्त आहार में स्वाद वृद्धि के हेतु से नमक, मिर्ची, शक्कर आदि संयोज्य पदार्थ मिलाकर भोजन को स्वादिष्ट बनाकर, पुदगलों में आनंदानुभूति करते हुए खावें तो वह अपने निर्दोष आहार को संयोजना दोष वाला बनाकर खाता है। ___ जो श्रमण इस प्रकार नहीं करके गोचरी में प्राप्त आहार को अनासक्ति से हर्ष-शोक किये बिना खाता है, विरक्ति भाव कायम | 226]

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