Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 245
________________ आगम निबंधमाला से श्रावक कहीं भी जावे तो वहाँ ईर्यावहि नहीं करते हैं / पुष्कली आदि श्रावकों ने शंख जी के नहीं आने पर फिर ही आहार ग्रहण का कार्यक्रम किया था। यह सूत्र पाठ से स्पष्ट होता है। अत: उन श्रावकों ने पौषध के पच्चक्खाण में आहार पानी के सिवाय पच्चक्खाण किया था / तदनुसार सावध योग का, पापों का संपूर्ण त्याग 2 करण, 3 योग से होने के कारण उनका यह पौषध प्रतिपूर्ण पौषध की गिनती में लिया गया है। ऐसा समझना योग्य है। निबंध-१३१ पुद्गल परावर्तन स्वरूप पुद्गल परावर्तन के सात प्रकार हैं- (1) औदारिक पुद्गल परावर्तन (2) इसी तरह वैक्रिय (3) तैजस (4) कार्मण (5) मन (6) वचन (7) श्वासोश्वास पुद्गल परावर्तन / पुद्गलों के अनंत प्रकार होते हैं तथापि अपेक्षा से यहाँ सात प्रकार की पुद्गल वर्गणाओं से सात पुद्गल परावर्तन कहे गये हैं / जीव अनादि काल से उपरोक्त सातों प्रकार के पुद्गल ग्रहण करते हैं और छोडते हैं / लोक के समस्त पुद्गलों को जीव औदारिक शरीर रूप में ग्रहण कर ले उतने समय को औदारिक पुद्गल परावर्तन कहते हैं / इसमें कम से कम एक बार सभी पुद्गगलों का औदारिक रूप में ग्रहण होना अनिवार्य है / इसके बीच जिनका दुबारा तिबारा आदि ग्रहण हो जाय उसकी कोई गिनती होती नहीं है। इसी तरह वैक्रिय, तैजस आदि वर्गणा के रूप में समस्त पुद्गलों के ग्रहण का नम्बर आ जाने पर वेवे पुद्गल परावर्तन बनते हैं / प्रत्येक पुद्गल परावर्तन के बनने में अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी अर्थात् अनंत कालचक्र व्यतीत होते हैं / तब एक जीव लोक के समस्त पुद्गलों को उस-उस एक वर्गणा रूप में ग्रहण कर पाता है / जिन पुद्गलो के ग्रहण का संयोग जीव को ज्यादा मिलता है, वह पुद्गल परावर्तन जल्दी पूर्ण होता है। यथा- कार्मण पुद्गल परावर्तन / क्यों कि वह प्रत्येक भव में और अधिकतम ग्रहण संयोग वाला है। जिन पुद्गलों के ग्रहण का संयोग जीव को कम होता है, वह पुद्गल परावर्तन लंबे काल से पूर्ण होता है, यथा- वैक्रिय पुद्गल परावर्तन। इस अपेक्षा- (1) सबसे छोटा (कम समय में पूर्ण होने वाला) कार्मण पुद्गल परावर्तन है। (2) उससे तैजस पुद्गल परावर्तन बडा होता है। इसके पुद्गल कार्मण जितने निरंतर ग्रहण नहीं होते। (3) इससे औदारिक पुद्गलपरावर्तन बड़ा होता है। नरक देव में उसका संयोग नहीं रहता है। (4) इससे श्वासोश्वास पुद्गलपरावर्तन बडा होता है क्यों कि अपर्याप्त मरने वाले अनंत जीवों के श्वासोश्वास नहीं | 245

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