Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 252
________________ आगम निबंधमाला सावधान सतर्क रहने का अभ्यास कायम होने से संथारा किया जा सकता है / निश्चित तिथी तो अंतिम लेटेष्ट आवश्यकीय तिथि समझना चाहिये / - मुझे मेरे दीक्षागुरु-दादागुरु ने दिवंगत होने के 12 दिन बाद विहार में छोटे से गांव में रात्रि 4 बजे स्वप्न में दर्शन (साधुवेश में) दिये / 5-10 मिनिट वार्ता प्रश्नोतर के साथ मेरे से शारीरिक सेवा भी ली थी और कहा था कि तुम जिन नाम कर्म बांधोंगे / उम्र का मेरे द्वारा पूछने पर इसारे से जो दिखाया था उसका मतलब अनुभवियों ने बताया था वह भी 70 वर्ष के उपर ही जाता था / फिर नींद खुल जाने से मैंने स्वाध्याय आदि में समय पूर्ण किया किन्तु सोया नहीं। ___ मैंने मेरे जीवन में उत्कृष्ट रसायण से सदा श्रुत ज्ञान की अधिकाधिक आराधना विभिन्न तरह से करी हैं। अभी मुझे यह भी आभास श्रृतज्ञान से होने लगा कि मैं प्रथम देवलोक का एक भव करके महाविदेह की अन्यतर विजय में गुरु कथित जिन रूप से जन्म धारण कर आत्म कल्याण करूँगा। इसीलिए मैंने 1-2 महिने के संथारे की हिम्मत से निर्णय किया है / जीवन में भी सदा तपस्या का (अभ्यास संथारे का मनोरथ नित्य रखने से) क्रमिक वार्षिक-मासिक तप करते रहा हूँ। अनेक पर्युषण एक साथ अठाई (8 उपवास)करके सफल किए हैं / और 2014 के पर्युषण मैं भी अठाई करने का निर्णय रखा है। यह सब पत्र द्वारा प्राप्त आपकी जिज्ञासा को संतुष्ठ करने के लिए मैने आपका पत्र आया उसी दिन रात्रि 10 से 11 बजे में उत्तर लिखा है। प्रथम बार ही मैने कई आतंरिक बातें व्यक्त की है। आशा है आपको संतोष एवं समाधान प्राप्त होगा, प्रत्युत्तर की प्रतिक्षा में--- समाधान की पहुँच :- तमारो पत्र समयसर मली गयो हतो / जीवन ना प्रत्येक पडाव पर तमे जे सावधानी सावचेतीपूर्वक आगल वधी रह्या छो ते एक आदर्श कही शकाय छे / शरीरनुं भेदज्ञान थया पछी आ सहज शक्य बने छ / तमे पहेलीवार आ रीते विस्तृतमा बधी विगत जणावी तेथी खूब आनंद थयो / मारा मननी / २५२श

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