Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 235
________________ आगम निबंधमाला की पृच्छा है वह नहीं गिना जाता है शेष सात की अपेक्षा की जाती है। यह उदय रूप कर्म की अपेक्षा कथन है / निबंध-१२९ __ऊर्ध्व-अधो-तिर्यक लोक स्वरूप अनंतानंत आकाश रूप अलोक है / जिसके मध्य में लोक है / वह लोक नीचे से उपर 14 राजु प्रमाण है / नीचे चारों दिशाओं में अर्थात् पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण सात राजु प्रमाण चौडा एवं गोलाकार है / इसी तरह मध्य में एक राजु प्रमाण चौडा और गोलाकार है जो समभूमि रूप तिरछा लोक है / उपर पाँचवाँ देवलोक पाँच राजु प्रमाण लंबा-चौडा गोलाकार है। सिद्धशिला से उपर लोक का चरमांत भाग है जो एक राजु प्रमाण लंबा-चौडा-गोल है। सातवीं नरक के नीचे लोक चरमांत सात राजु विस्तार का है वह क्रमशः कम होते हुए प्रथम नरक की उपरी सतह तक नीचे से सात राजु आने पर 1 राजु हो जाता है / प्रथम नरक पृथ्वी की उपरी सतह ही हमारी समभूमि रूप तिरछा लोक है / यहाँ से फिर उपर की तरफ लोक की लंबाई-चौडाई क्रमशः बढती है जो एक राजु से बढती-बढती पाँचवें देवलोक तक अर्थात् समभूमि से 3 // राजु उपर जाने पर पाँच राजु की हो जाती है / वहाँ से उपर की तरफ आगे पुनः अर्थात् पाँचवें देवलोक से आगे 3 // राजु उपर जाने तक एक राजु का विस्तार होता है / इस तरह नीचे से उपर चौदह राजु प्रमाण लोक, नीचे प्रारंभ में सात राजु विस्तार वाला, समभूमि पर एक राजु, फिर पाँचवें देवलोक में पाँच राजु एवं उपरी चरमांत में एक राजु विस्तार वाला है। __ इस प्रकार संपूर्ण लोक का आकार उपर-उपर रखे गये तीन सिकोरे जैसा है जिसमें पहला उल्टा, दूसरा सीधा और उस पर तीसरा सिकोरा पुनः उल्टा रखने पर यह लोक आकार बनता है / विशेष यह है कि उपर के दो सिकोरों की ऊँचाई समान हो और नीचे के सिकोरे की ऊँचाई उससे दुगुनी हो तो वह लोक के यथार्थ आकार जैसा बनता है / लोक के मुख्य तीन विभाग इस प्रकार है / 235/

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