Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 230
________________ आगम निबंधमाला के घोडे, हाथी की संख्या लाखों में है तो यहाँ कोणिक आदि के घोडों आदि की संख्या हजारों में है। उसी तरह चक्रवर्ती के पैदल की संख्या क्रोडों में है तो इन राजाओं की लाखों में मानना युक्त लगता है। फिर भी मूलपाठ को गलत सिद्ध करने का अपने पास कोई आगम प्रमाण नहीं है, यह बात सत्य है तथापि विचारणीय अवश्य है, यह स्वीकार्य है / तत्त्वं केवली गम्यं / (तमेव सच्चं णिसंकं...) निबंध-१२६ सदोष या निर्दोष आहार देने का फल (1) सावद्य त्यागी श्रमण निग्रंथ को निर्दोष कल्पनीय आहार गुरुबुद्धि से प्रतिलाभित करने पर एकांत निर्जरा होती है उसमें आहार . निर्दोष होने से कोई पाप नहीं लगता है / (2) सावद्य त्यागी श्रमण निग्रंथ को औषध उपचार या अन्य किसी संकट युक्त परिस्थिति से अथवा कभी अविवेक अज्ञान से, भक्ति के अतिरेक से श्रमण निग्रंथ की शाता भावना से सदोष आहार वहेराने पर बहतर निर्जरा एवं दोषित आहार होने से उसमें होने वाली विराधना या समाचारी भंग से अल्प पाप भी होता है। यहाँ बहुतर निर्जरा कहने का आशय यह है कि दाता द्रव्यं से सूझता होने के कारण द्रव्यशुद्ध है एवं संयम साधना में सहायक होने के उसके शुभ भाव है अत: वह भाव से शुद्ध है और दान लेने वाला पात्र भी शुद्ध है क्यों कि श्रमण निर्गंथ तथारूप के हैं / मात्र वस्तु दोषित होने का यहाँ अल्प पाप कहा है / (3) सावध के अत्यागी असंयत अविरत किसी भी संन्यासी को गुरुबुद्धि से त्यागी मानकर जो आहार दान करता है वह मिथ्यात्व भाव के सेवन के कारण मोक्ष हेतुक निर्जरा नहीं करता है / (क्यों कि एकांत निर्जरा तो त्यागी श्रमण को देने से होती है / ) एकांत पापकर्म करता है / इस कथन का हेतु मिथ्यात्व के पोषण से है / मिथ्यात्व भावित व्यक्ति मोक्ष हेतुक सकाम निर्जरा नहीं करता है। इसमें गान लेने वाला असंयत होने से अपात्र है; दाता उसे गुरु त्यागी पात्र समझ कर 230

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