________________ आगम निबंधमाला . . (3) पुण्यबंध- जीवों को प्रत्येक समय, प्रत्येक प्रवृति से कर्मबंध होता रहता है / प्रथम गुणस्थान से लेकर नवमें गुणस्थान तक के सभी जीवों के सात कर्म का बंध निरंतर होता ही रहता है और आयुष्य कर्म का बंध तो प्रत्येक जीव को एक जीवन में एक बार ही होता है / इस अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि सम्यग्दृष्टि श्रमणोपासक और नवमें गुणस्थान तक के श्रमणों के कर्मप्रकृति के बंध की अपेक्षा पुण्य प्रकृति बंध और पाप प्रकृति बंध सभी प्रवृत्तियों में कुछ न कुछ होता ही रहता है अर्थात् 9 प्रकार की प्रस्तुत सूत्रोक्त पुण्य प्रवृत्ति, 18 प्रकार के पापों की प्रवृत्ति तथा व्रत प्रत्याख्यान युक्त श्रावक साधु की संवर निर्जरा की प्रवृत्तियों के समय में भी दोनों प्रकार का बंध होता रहता है / तथापि उसमें अलग-अलग विशेषता होती है, यथा- (1) प्रस्तुत 9 पुण्य कार्यों में पुण्य प्रकृतिबंध की अधिकता-मुख्यता होती है, पापप्रकृति बंध की न्यूनता-गौणता-नगण्यता होती है.। (2) 18 पाप की प्रवृत्तियों में पाप प्रकृति बंध की मुख्यता-अधिकता होती है, पुण्य कर्म प्रकृतिबंध की न्यूनता-गौणता होती है / (3) धार्मिक अनुष्ठानों में व्रत-महाव्रत, त्याग-तप में कर्मनिर्जरा(कर्मक्षय)की मुख्यता-अधिकता होती है, साथ ही बंध विभाग में पुण्य प्रकृतिबंध की अधिकता और पाप प्रकृति बंध की न्यूनता होती है / इस प्रकार प्रकृति बंध की अपेक्षा पुण्य का स्वरूप समझना चाहिये। प्रतिप्रश्न- पुण्य के कार्य में पाप प्रकृति का बंध क्यों एवं पाप कार्यों में पुण्य प्रकृति का बंध क्यों और धर्म की प्रवृतियों में संवर निर्जरा के साथ पुण्य और पाप प्रकृतियों का बंध क्यों होता है ? समाधान- नवमें गुणस्थान तक जीव के सूक्ष्म या स्थूल रूप में कषाय उदय चालु रहता है, योग प्रवृत्ति भी चालु रहती है जिससे कितने ही जीवों को सुख-दु:ख पहुँचता रहता है / संसार की पाप प्रवृत्तियाँ करते हुए भी जीव पारिवारिक, कर्मचारी जीवों को सुख पहुँचाता रहता है और पुण्य की प्रवृत्तियाँ करते हुए भी जीव उन प्रवृत्तियों से कितने ही जीवों को कष्ट भी पहुँचाता है / आरंभ-समारंभ की प्रवृत्तियाँ एवं योगजन्य गमनागमन आदि प्रवृत्तियों में सूक्ष्म स्थूल रूप से हिंसा भी होती है / इसीलिये | 164 -