Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 179
________________ आगम निबंधमाला व्युत्सर्ग तप में वृद्धि करना, गण-समूह, उपधि का त्याग करना, संयमी सहवर्तियों के लिये सदा उदारता रखना आदि गुणों का इसमें, त्याग में समावेश होता है। इसके स्थान पर 'अकिंचनत्व' शब्द के द्वारा भी मर्छा या संग्रह के त्याग का ही कथन है / (10) बंभचेरवासे- सब तपों में उत्तम तप ब्रह्मचर्य है / मुनि तीन करण तीन योग से शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करे / उसकी सुरक्षा के नियम रूप नववाड या दस ब्रह्मचर्य समाधिस्थान जो शास्त्र में कहे गये हैं उनका पूर्णतया ध्यान रखे / तत्संबंधी स्पष्टीकरण स्थानांग सूत्र स्थान-९, प्रश्न-३ में किया गया हैं, उन्हें लक्ष्य पूर्वक आत्मशात करके, ब्रह्मचर्य गुण को धारण करना चाहिये। यति के(मुनियों के) इन गुणों का धारण करना, पालन करना यह मुनियों का यतियों का धर्म है, कर्तव्य है / अतः इन्हें 10 यति धर्म कहा गया है। श्रमणों के बारह संभोग व्यवहार- स्वधर्मी, समान समाचारी, एवं एक गण के श्रमणों में परस्पर भोजन व्यवहार की प्रमुखता वाले 12 व्यवहार होते हैं, उन्हें बारह संभोगव्यवहार कहा गया है। वे इस प्रकार है- (1) उपधि- वस्त्र-पात्र आदि उपयोगी उपकरणों का परस्पर आदान प्रदान / (2) श्रुत- शास्त्रों की वाचना देना-लेना। (3) भक्तपान- परस्पर आहार-पानी, औषध-भेषज का आदान प्रदान / (4) अंजलि- प्रग्रहरत्नाधिक के सामने हाथ जोडकर खडे रहना अथवा सामने मिलने पर हाथ जोडकर मस्तक झुकाना / (5) दान- शिष्य का देना-लेना / (6) निमंत्रण- शय्या-मकान, संस्तारक, उपधि, वस्त्र-पात्र आदि का निमंत्रण करना / (7) अभ्युत्थान- रत्नाधिक श्रमण के आने पर खडे होना, आदर देना, सन्मान सूचक शब्द-आओ पधारो आदि बोलना। (8) कृतिकर्मअंजलिकरण, आवर्तन, हाथ जोडकर मस्तक झुकाना, एवं सूत्रोच्चारण पूर्वक विधि सहित वंदन करना / (9) वैयावृत्य- आवश्यक होने पर परस्पर शारीरिक सेवा-परिचर्या करना,भिक्षालाकर देना, वस्त्र प्रक्षालन, मल-मूत्र आदि परिष्ठापन रूप विविध सेवा-सुश्रूषा करना एवं करवाना। -- (10) समवसरण- एक ही उपाश्रय में निवास करना / साथ में रहना, बैठना आदि प्रवृत्ति करना / (11) सन्निषद्या- एक ही आसन, पाट [179

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