Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 193
________________ आगम निबंधमाला सहमति से समुचित घटनाएँ प्राप्त आगम में संपादित कर सकते हैं। इस प्रकार ये अपने-अपने तीर्थंकर के शासन पूरते संपादन होते हैं, जिसमें सिद्धांत और तत्त्व रचना में परिवर्तन नहीं होता है / इन्हीं कारणों से व्यक्तिगत तीर्थंकर के शासन रूप परिणत द्वादशांगी में तीर्थंकर गणधरों के गुण-संवाद आदि मिलते हैं / गणधर गौतम प्रभू एवं भगवान के संवाद भी मिलते हैं / भगवान महावीर के जीवन से संबंधित गौशालक, जमाली आदि घटनाएँ भी शास्त्रों में उपलब्ध है और प्रस्तुत शतक में राजगृही नगरी के वर्णन युक्त उत्थानिका होने का हेतु भी यही समझना चाहिये / इस प्रकार द्वादशांगी, तत्त्व सिद्धांतो की अपेक्षा शाश्वत भी है और उपरोक्त अपेक्षाओं से स्व-स्व शासन योग्य संपादित भी होती है। इसीलिये गणधर रचित द्वादशांगी कही जाती है तथा वर्तमान अवसर्पिणी हुण्डासर्पिणी होने से गणधरों के बाद बहुश्रुत पूर्वधर आचार्यों से संपादित भी कुछ अंश एवं नये संपादित शास्त्र भी दशवैकालिक, प्रज्ञापना, छेदसूत्र एवं नंदी सूत्र आदि मिलते हैं / अनेकांत सिद्धांत से इस विषय को समझकर, उत्पन्न होने वाली जिज्ञासाओं का समाधान किया जा सकता है / / . तथापि बहुश्रुत पूर्वधरों की संपादन-रचना में और लहियों के मंगल रूप पदों में भिन्नता समझनी चाहिये / इन दोनों को एक या समकक्ष नहीं किया जा सकता, यह ध्यान रखना जरूरी है। निबंध-१०० श्रमणों के कांक्षा मोहनीय(मिथ्यात्व)वेदन कैसे? श्रमण निग्रंथ भी कई निमित्त संयोग या उदयवश कांक्षा मोहनीय का वेदन करते हैं अर्थात् कई प्रसंगों एवं तत्त्वों को लेकर वे भी संदेहशील बन जाते हैं / कभी कोई संदेह में उलझ जाने से कांक्षा मोहनीय का वेदन होता है / फिर समाधान पाकर या उक्त श्रद्धा वाक्य को स्मरण करके उलझन से मुक्त स्वस्थ अवस्था में आ जाते हैं / जो ज्यादा से ज्यादा उलझते ही रहते हैं या उस उलझन में ही | 193

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