Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 199
________________ आगम निबंधमाला होता है, आत्मा संयम में स्थिर होती है / __ स्थविरों का सीधा और सचोट उत्तर कालास्यवेषी अणगार को सरलतापूर्वक हृदयग्राही बना। उसे अत्यधिक संतुष्टी हुई जिसे उसने वंदन करते हुए निम्न कृतज्ञता के शब्दों से व्यक्त किया, यथा- हे भगवन् ! इन पदों को मैंने पहले जाना सुना नहीं था, इनका मुझे बोध नहीं था, अभिगम(ज्ञान) नहीं था, अदृष्ट, अश्रुत, अविचारित, अविज्ञात, अप्रगट, अनिर्णित, अनियूंढ और अनवधारित थे / इस विषय में मुझे श्रद्धा प्रतीति रुचि नहीं थी किंतु आपके द्वारा इन पदों का सही अर्थ परमार्थ समझने को मिला यावत् अवधारण होने से अब मैं इन पदों की यथार्थ श्रद्धा प्रतीति रुचि करता हूँ जैसा कि आपने समझाया है / __इस प्रकार सरलात्मा कालास्यवेषी पुत्र अणगार भगवान महावीर के शासन में स्थविर भगवंतो के पास पुनः महाव्रतारोपण करके पंच महाव्रत-सप्रतिक्रमण धर्म में दीक्षित बने एवं अनेक वर्ष संयम पर्याय का पालन कर सिद्ध बुद्ध मुक्त बने / सामायिक आदि का व्यवहारनय प्रधान अर्थ :- (1) समभावों में लीन बनना, सावद्य योगो का त्याग करना सामायिक है / नये कर्मों को रोकना, पुराने का क्षय करना यह सामायिक का प्रयोजन है / (2) पापों का या आहारादि पदार्थों का त्याग करना, यह प्रत्याख्यान है / आश्रव रोकना और कर्म निर्जरा करना यह उसका प्रयोजन है। (3) पृथ्वीकाय की यतना करना संयम आदि 17. प्रकार का संयम तथा इन्द्रिय एवं मन का निग्रह करना संयम है। (4) संवर- आश्रवों का निरोध करना (5) विवेक- विशेष बोध, हेय उपादेय तत्त्व का पृथक्करण करना / (6) व्युत्सर्ग- हेय का त्याग करना / विवेक और व्युत्सर्ग दोनों ही सम्यक् अवबोध प्राप्ति में उपयोगी है / यह इन छ पदों का व्यवहार नयापेक्षा अर्थ-प्रयोजन है / निश्चय और व्यवहार दोनों नय सापेक्ष मोक्षमाग की साधना आराधना सफलता को प्राप्त कराती है / निबंध-१०५ . अप्रत्याख्यानी क्रिया किसको ? अव्रती चार गुणस्थान तक के जीवों को अविरति की अपेक्षा / 199]

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