Book Title: Agam Nimbandhmala Part 03
Author(s): Tilokchand Jain
Publisher: Jainagam Navneet Prakashan Samiti

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Page 205
________________ आगम निबंधमाला ग्रहण करने का निर्णय किया / लौकिक व्यवहार के पालने हेतु अनेक स्वजन-परिजनों को निमंत्रित करके, भोजनोपरांत सब को संबोधित सूचित कर, सत्कारित सन्मानित करके, पुत्रों को कुटुंब का भार सोंपकर, फिर सभी की सम्मति, स्वीकृति लेकर, प्राणामा प्रव्रज्या स्वीकार की। दीक्षा ली जब से बेले-बेले पारणा करने का जीवन भर का अभिग्रह- नियम किया / पारणे में तामली तापस काष्ट पात्र में शुद्ध भोजन भिक्षाचरी से प्राप्त कर उसे जल में 21 बार धोकर नीरस बनाकर आहार करते थे। इस प्रकार की चर्या का पालन तामली तापसने 60,000 साठ हजार वर्ष पर्यंत निरंतर किया फिर दो महीने का पादपोपगमन संथारा उसी ताम्रलिप्ति नगरी के बाहर किया। प्राणामा प्रव्रज्या- इस प्रव्रज्या वाला देव मानव दानव पशुपक्षी जिस किसी को उपर, नीचे या तिरछे जहाँ देखे वहीं उनको अत्यंत विनयपूर्वक प्रणाम करता है / जो भी सामने मिले उसे भी प्रणाम करता है। साठ हजार वर्ष तक इस प्रकार का विनय, बेले-बेले तप तथा पारणे में 21 बार जल से धोया हुआ आहार अर्थात् उच्चकोटि के आयंबिल आहार से उसने अपने औदारिक शरीर को तथा कार्मण शरीर को अत्यंत कृश कर दिया, हाडपिंजर जैसा शरीर बन जाने पर भी समय रहते अनशन की आराधना प्रारंभ कर दी। ___उस समय असुरकुमार जाति के भवनपति देवों की बलिचंचा राजधानी, इन्द्र (बलीन्द्र)से खाली थी अर्थात् वहाँ के इन्द्र का च्यवन हो चुका था, नया इन्द्र जन्मा नहीं था / वहाँ के अनेक देव-देवियों ने उपयोग लगाकर तामली तापस को संथारे में देखा और अनेक देव-देवियों ने तामली तापस के पास आकर विनयपूर्वक निवेदन किया कि आप नियाणा करके हमारी राजधानी में इन्द्र रूप में उत्पन्न हो जाओ। अनेक प्रयत्न करने पर भी वह तापस उनके किसी प्रलोभन में नहीं आया और निष्काम नियाणा रहित साधना संथारा पूर्ण करके दूसरे देवलोक में ईशानेन्द्र रूप में उत्पन्न हुआ / बलिचंचा राजधानी के देव-देवियों ने जब तामली तापस को / 205 /

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