________________ आगम निबंधमाला वाली और देह में रहते हुए देहातीत अवस्था को तथा संसारस्थ होते हुए संसारातीत, संसार व्यवहारातीत अवस्था को देने वाली है / . सार यह है कि छोटी या बडी, कठिन या सरल, किसी भी जिनाज्ञा वाली साधना के साथ सम्यग्ज्ञान, सम्यक्श्रद्धान तथा सम्यक् प्ररूपणा है, सम्यग् लक्ष्य है, तो वे सभी साधनाएँ आत्मा के लिये द्रव्य-भाव उभययुक्त होकर मुक्ति तक पहुँचाने वाली है / अत: जब जैसा संयोग, अवसर और उत्साह हो तब सम्यक् श्रद्धा और सम्यग् लक्ष्य के साथ सूत्रोक्त किसी भी साधनाओं को स्वीकार कर अपनी मंजिल में आगे बढ़ते रहना चाहिये / चाहे वे स्थूल दृष्टि से आभ्यंतर हो या बाह्य, द्रव्य रूप हो या भाव रूप, किंतु यदि तीर्थंकर प्रभु ने उसे उपादेय बताई है, आगम रूप जिनवाणी में जो आचरणीय कही गई है, वे सभी साधनाएँ मोक्ष हेतुक ही है, ऐसी दृढ आस्था / रखनी चाहिये / तीर्थंकर प्रभु जैसी उच्च आत्माएँ भी गृहत्याग, महाव्रत ग्रहण प्रतिज्ञा, केश लोच, पैदल भ्रमण, भिक्षावृत्ति, अस्नान, अदंतधावन, विविध अभिग्रह एवं उपवास आदि विकट तपस्या इत्यादि स्थूल दृष्टि से बाह्य दिखने वाली साधनाएँ स्वयं स्वीकार करते हैं तथा उपदेश द्वारा अन्य मुमुक्षु प्राणियों को श्रावकव्रत-नियम, सामायिक, पौषध, उपभोग- परिभोग के पदार्थों की मर्यादा एवं गृहत्याग का उपदेश देकर संयम स्वीकार करवाते हैं / बाह्य लिंग वेशभूषा, मुखवस्त्रिका आदि ग्रहण कराते हैं और प्रत्याख्यान के पाठ का उच्चारण भी कराते हैं / इन सभी द्रव्य साधनाओं के साथ ज्ञानियों की दृष्टि में सूक्ष्म दृष्टि से भावों की साधना, अंतर्निहित होती है / ये साधनाएँ तीर्थंकरों एवं महान आत्माओं द्वारा आसेवित है, उपादेय है और सर्वथा हितावह है। अत: जिनाज्ञा में निर्दिष्ट ये धर्म साधनाएँ किसी दृष्टि से उपेक्षा करने योग्य नहीं कही जा सकती। फिर भी मात्र एकांत भाववादिता का चश्मा चढाकर कोई अपने आप को महा वीतरागदशा में समझकर, देशविरति, सर्वविरति की एवं 12 भेदे तप रूप किसी भी साधनाओं की, व्रत-नियमो की उपेक्षणीयता सिद्ध करे, इन जिनाज्ञा की साधनाओं के महत्व को गिराने का प्रयत्न करे तो वह उसकी एकांतवादिता है, एकांतिकदृष्टि 48