________________ आगम निबंधमाला अवतारवाद :- इस अध्ययन के तीसरे उद्देशक की ११वीं 12. वीं गाथा में इस अवतारवाद का दिग्दर्शन है / इसे त्रैराशिक वाद भी कहा जा सकता है / इसमें जीव की तीन अवस्थाएँ मान्य है- (1) संसार अवस्था (2) सिद्धअवस्था (3) अवतारअवस्था / इस मतवालों की यह मान्यता है कि क्रीडा हेतु या अधर्म विनाश और धर्मोत्थान के लिये महान आत्माएँ पुनः इस लोक में अवतार (संसारी रूप) स्वीकार करते हैं / यह मान्यता वैदिक परंपरा में प्रसिद्ध है / गीता आदि ग्रंथों में भी स्पष्ट वर्णन है / / जैन दर्शन की यह मान्यता है कि सिद्धात्मा कर्म रहित हो जाने से उनके संसार में पुनः आने का कोई कारण नहीं रह जाता। उनमें क्रीडा, राग या द्वेष कुछ नहीं है / जगत के उद्धार के लिये या धर्म क उद्धार के लिये एक से एक महान आत्माएँ स्वाभाविक ही मानव रूप में जन्म धारण करती रहती हैं ऐसे ही यह संसार चक्र चलता रहता है / तीसरे उद्देशक की अंतिम गाथाओं में कहा गया है कि ये सभी मत-सिद्धांत वाले अपने अपने मत की प्रशंसां और पुष्टि करते हैं / अपने मत से सिद्धि होने का दावा करते हैं / वे स्वयं सिद्धि को प्राप्त करने का लक्ष्य रखते हुए भी अपने अयोग्य आशय में अवबद्ध रहते हैं उसे सही स्वरूप में समझने या छोडने को तत्पर नहीं हो सकते / इस कारण मिथ्यात्व अज्ञान में रह कर वे सही साधना के अभाव में संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं / लोकवाद :- लोक में प्रचलित धारणाओं को आधारभूत-अनाधारभूत कथन परंपराओं को यहाँ चौथे उद्देशक में लोकवाद से सूचित किया गया है। बहुचर्चित विषय भी लोकवाद कहे जा सकते हैं / यथा- (1) अनेक प्रकार के अवतार संबंधी कथन (2) यह लोक सात द्वीप मय है (3) लोक अनंत है इसका पार नहीं है (4) जो पदार्थ अभीष्ट और मोक्षोपयोगी है उन्हें देखने वाले सर्वज्ञ होते हैं किंतु संसार के समस्त कीडों को देखने की आवश्यकता सर्वज्ञ को नहीं होती / (5) पुत्र क बिना गति नहीं सुधरती, स्वर्ग नहीं मिलता (6) वह पुरुष अवश्य ही श्रृगाल बनता है जो विष्टा सहित जलाया जाता है / -(7) कुत्ते यक्ष है, ब्राह्मण देव हैं / (8) जो ब्राह्मणों को वाद में हराता है वह स्मशान में 84