________________ आगम निबंधमाला परिषद का पूर्ण अनुभव रखते हुए विवेक और भाव शुद्धि के साथ मुनि उपदेश देवे एवं किसी का अहित न हो वैसा उपदेश देवे / (6) चतुराई के साथ श्रोता-परिषद के मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय आदि दूर होवे; उनकी आत्मा धर्म में अभिवृद्धि करे, इस प्रकार उपदेश देवे / स्त्रीयों से अथवा शब्द रूप आदि सभी इन्द्रिय विषयों से विरक्ति पैदा हो, इस प्रकार उपदेश देवे / सुंदर दिखने वाले स्त्री के रूप आदि और मधुर मनोज्ञ लगने वाले विषय-भोग एवं ऐसो-आराम आदि किंपाक फल के समान मधुर है परंतु परिणाम इनका दुर्गति दायक है। यह ज्ञान युक्ति पूर्वक उनकी आत्मा में जमे ऐसा योग्य उपदेश देवे / जिससे वे संसार से विरक्त होकर मुनि धर्म स्वीकार करे या गृहस्थ जीवन में भी आसक्ति घटाकर व्रत प्रत्याख्यानमय जीवन जीवे / (7) साधु अपनी पूजा, प्रतिष्ठा, सम्मान, यश, कीर्ति आदि प्राप्त करने के उद्देश्य से उपदेश न दे किंतु गुरुआज्ञा से, स्वाध्याय हेतु एवं धर्मप्रेमी जनता के हितार्थ धर्मोपदेश देवे तथा जिनशासन की प्रभावना के लिये, धर्मप्रचार के लिये उपदेश देवे / अपनी संयम मर्यादा में रहकर छकाय जीवों की रक्षा-दया युक्त उपदेश करे, किसी भी जीव के अहितकारी उपदेश नहीं करे / (8) उपदेश कोई सुने या न सुने, आचरण करे या न करे तो भी किसी पर राजी-नाराजी, अव्यवहार, असंतोष भाव न रखे और असंतोष प्रकट न करे, किंतु अपने सामर्थ्य या प्रभाव अनुसार धर्मोपदेश के माध्यम से प्रयत्न करता रहे कि जीव धर्म समझे, व्रती-महाव्रती बने / किंतु इस लक्ष्य से भी किसी को अप्रिय-अमनोज्ञ-अपमान योग्य कुछ न कहे / (9) किसी का अनिष्ट भी न करे / निंदा-विकथा न करे और विकथाओं की चर्चा, उपदेश के माध्यम से न करे / सावध-हिंसाकारी आरंभजनक प्रवृतियों की प्रेरणा या उपदेश भी न करे / परिषद के देव, गुरु या रुचि आदि की कटु शब्दो में आलोचना, निदा या मिथ्या आक्षेप आदि युक्त धर्म कथा न करे। (10) उपरोक्त सभी अनर्थकारी असद उपदेशों का त्याग कर, विवेक ज्ञान को धारण कर, मुनि शांत, अनुकूल और कषाय रहित होकर उपदेश करे / / / 94