________________ आगम निबंधमाला . सभी प्रकार के रोगों की उपवास चिकित्सा में उपवास समाप्ति पर खान-पान का विवेक रखना आवश्यक होता है / जितने उपवास किये हों उतने दिन अति तीखा, अति खारा, अति मीठा, अति गरिष्ट, अति लूखा नहीं खाने का ध्यान रखना होता है, भूख से कम और प्रत्येक चीज एकबार में अल्प मात्रा में ली जाती है / औषध भेषज का भी यथाशक्य परहेज ही रखना होता है। थोडा बहुत कष्ट आवे तो भी धैर्य और अल्पाहार से उसे पार करना होता है / इस प्रकार ध्यान रखने पर तपस्या युक्त चिकित्सा पारणे में भी सफल सुखदायी बन जाती है / इसी शास्त्र के नवमें स्थान में नव की संख्या का वर्णन करते हुए रोगोत्पत्ति के 9 कारण कहे हैं / जीवन में उन बातों का ध्यान रखा जाय तो रोगोत्पत्ति से बचा जा सकता है / निबंध-७० शुभ कर्म दुखदायी : अशुभ कर्म सुखदायी शुभ कर्मोदय क नशे में जीव विविध पापाचरण करके उसके परिणाम स्वरूप दुःखों की प्राप्ति करता है तो इस अपेक्षा से वे शुभ कर्म दु:खों की परंपरा को बढाने वाले होने से परिणाम में दुःखकारक बनते हैं / उसी प्रकार अशुभ कर्मों के उदय में उस निमित्त से जीव बोध प्राप्त कर पुण्यकर्म या धर्माचरण करके दुःखपरंपरा का विनाश करके सुखों का भागी बनता है / इस प्रकार विभिन्न अपेक्षाओं से अनेक विकल्प कर्मों के बनते हैं, यथा- 1. कोई शुभ कर्म के उदय में शुभ बंध करे। 2. शुभ कर्म के उदय में कोई अशुभ कर्मबंध करे / 3. अशुभ कर्म के उदय में कोई शुभ कर्मों का बंध करे और 4. कोई अशुभ कर्म के उदय में अशुभ कर्मबंध करे। (1) कोई शुभ कर्म तत्काल सुखदायी होता है यथा- शाता वेदनीय। (2) कोई शुभ कर्मतत्काल दु:खदाई होता है यथा-घ्राणेन्द्रिय का सुंदर क्षयोपशम होने पर दुर्गंध के ज्ञान से तत्काल दु:खानुभव होता है / (3) अशुभ कर्म के उदय से तत्काल सुख होता है यथा- पाप प्रकृति निद्रा के उदय से नींद आने पर शांति मिलती है। (4) अशुभ कर्म के उदय से तत्काल दुःख होता है यथा- अशातावेदनीय कर्म के उदय होने पर। [142