________________ आगम निबंधमाला में चलने का आचार बताया गया है, जिसमें वस्त्र की ऊणोदरी तथा आहार की स्वतंत्रता का निर्देश है / वह मुनि स्वयं किसी कष्ट या रोग के कारण भिक्षार्थ न जा सके तो भी किसी की सेवा नहीं लेता है और श्रद्धावान गहस्थ सामने लाकर देवे तो उससे भी आहारादि नहीं लेता है किंतु स्पष्ट मना कर देता है / इस अध्ययन के पाँचवें और सातवें उद्देशक में एक-एक चौभंगी है। जिसका तात्पर्य यह है कि साधनाशील वृत्तिसंक्षेप के लक्ष्यवाला साधक गुरु आज्ञा प्राप्त कर पारस्परिक आहार व्यवहार के अनेक प्रकार से अभिग्रह कर सकता है। उसमें वह अपने लिये, दूसरों से आहार मंगाने का त्याग कर सकता है और दूसरों के लिये लाने का त्याग भी कर सकता है। गुरु आज्ञा तथा विवेक पूर्वक ऐसे विविध नियम आत्मसाधना में पुष्टि करने वाले होते हैं / ऐसे नियम एकांगी आत्मसाधना के तीव्रतम लक्ष्य से होते हैं; उनमें व्यवहार गौण हो जाता है / ऐसे साधकों का जीवन लोकैषणा और व्यवहारिकता से ऊपर उठ जाता है, परे हो जाता है / क्यों कि उन आचार नियमों में कषायमूलकता नहीं होती है / साधना की प्रगति ही उनका मात्र लक्ष्य होता है / ऐसे साधक अन्य को हीन और अपने को उच्च, ऐसा भाव भी नहीं रख सकते / गुरु आज्ञा, आत्म लक्ष्य और विवेक, सद्व्यवहार के साथ ऐसे अनेक नियम अभिग्रह श्रमण कर सकते हैं / इन अभिग्रह करने वाले साधकों की दोनों चौभंगी में एक-एक छूट भी रखी जा सकने का विधान किया है- (1) रोग अवस्था में किसी की सेवा कर सकूँगा और किसी की सेवा ले सकूँगा। (2) स्वाभाविक अपने लिये ग्रहण किये आहार में से अधिक हो तो किसी को दे भी सकूँगा और अन्य से ले भी सकूँगा / . इन नियम अभिग्रहों का उद्देश्य व्यवहार की उपेक्षा या खंडन से नहीं है किंतु स्वयं के वृत्तिसंक्षेप तप या भिक्षाचरी तप नियम अभिग्रहों से कर्म निर्जरा एवं परम निर्वाण प्राप्ति का उद्देश्य ही मुख्य होता है / इन आगम विधानों के आदर्श को समझकर हृदयंगम कर साधक को लोकैषणा और जनव्यवहार से परे होकर वृत्तिसंक्षेप के श्रेष्ठ आचार से आत्मगुणों को पुष्ट और कर्म समूह को नष्ट करनं में प्रयत्नशील रहना चाहिये / / 43