Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 02
Author(s): Rushabhdev Keshrimal Jain Shwetambar Sanstha Ratlam
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha
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लग्रहण
प्रतिक्रमणा ध्ययवे
1॥२४०।।
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वैगुण्यं वैषमता, विपरीतभाषा इत्यर्थः, वेधम्मताए य-सुतधम्मस्स एम थम्मो जं असज्जाइए सज्झायवळणं, करेंति य सुतणानायारं विराति, तम्हा मा कुणम् । चोयण आह-जदि दनद्विमममाणितादी अस झायो गणु देहो एतधम्मओ बेव, कहं तेण | समाय करेह , आचार्य आह-कारो! १५०६ काम नोगमाधिपाययसच्चं तम्मयो देहो तथावि जे सरीरा ते अवजुत्तत्ति पृथग्भृता ते वज्जणिज्जा, जे पुण अणवजुत्ता तत्वत्था ते णो बजाणिज्जा, इनि उपप्रदर्शने, एवं लोक दृष्ट, लोकोत्तरेऽप्येवमित्यर्थः ॥ किं चान्यत् - अर्डिभतरः॥ १५.७॥ अभ्यतरा मूत्रपुरीषादी तहिं चैव पाहिरे उवलितो व कुणति, | अगुवलित्तो पुण अम्मितरगनंसुवि तेम अह अच्चणं करति । किं चान्यत- आउष्ट्रिगा०॥ १५०८ ॥ जा पडिमा संनिहितित्ति देवताहिडिता सा जदि कोई अणाडितण आउटियंति जाणतो बाहिरलितो तं पाडि छिवति अच्चणं च से कुणति तो व खमते, खिसचिनादि करन रोगे या जणेति मारति वा, इयत्ति एवं जो असल्झाइए सज्झायं करेति तस्स णाणाय विराहणार कंमबंधो, एस से परलोइलो दंडो । इहलाए पम देवता छलज्ज । स्यात्-आणा व विराहणा वा धुवा घेत्र ॥ कोई इमहि अप्प| सत्थकारणेहिं असझाइए मज्झायं करज्ज-रागेण ॥१५०९ ॥ रागण दोसओ वा करेज्ज,अहवा दरिमणमोहमोहिजो भणज्जाका अमृतस्स नाणस्स आसातणा?, का वा तम्स अणायारो !, नास्तीत्यर्थः । एतसिं इमा विभासा- गणिसह ॥ १५१० ।। माहितोति पूज्य तुद्वाणदिओ परेण गणिवायगो बाहरिज्जन्तो भाति, सदमिलासी असन्माइएवि समायं करेति, एवं रागेदोसे, किंवा गणि बाहरिज्जति वायगो वा, अहंपि अहिज्जामि जेण एतस्स पडिसवनीभूतो मवामि, जम्हा जीवसरीरावयवो जसजमाइयं वा सच असमाइयमर्य, न श्रद्धातीत्यर्थः। इमे दोसा-उम्मायं ।। १५११ ॥ खिचाइगो उम्मायो, चिरकालिओ
ENESAKASIEV65ॐॐ
॥२४॥

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