Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भूमिका वैदिक परम्परा में वेद तथा बौद्धों में त्रिपिटक की भांति जैन परम्परा में आगम का महत्त्व है। आगम ज्ञान के अक्षय कोष हैं। आप्त एवं सर्वज्ञ वचन होने के कारण आगमों में वर्णित ज्ञान की विविध धाराएं अनेक रहस्यों को खोलने वाली हैं। धर्म, दर्शन, समाज, संस्कृति, इतिहास, भूगोल एवं खगोल की विस्तृत जानकारी जैन आगमों में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी है। जीवन को परिष्कृत करने के जो अमूल्य सूत्र जैन आगमों में मिलते हैं, अन्यत्र दुर्लभ हैं। आगमों के रूप में प्राप्त महावीर- वाणी समाज, राष्ट्र एवं परिवार की अनेक समस्याओं को समाहित करने में उपयोगी बन सकती है। आगमों का वर्गीकरण
दिगम्बर परम्परा आगमों का लोप मानती है किन्तु आचार्यों द्वारा रचित कुछ ग्रंथों को आगम के समान महत्त्व देती है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर-वाणी आज भी ११ अंगों के रूप में सुरक्षित है। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानकवासी एवं तेरापंथ ३२ आगमों को प्रमाणभूत मानता है१. अंग ११
४. मूल ४ २. उपांग १२
५. आवश्यक १ ३. छेद ४ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ४५ ग्रंथों को आगम के रूप में स्वीकार करती है, जिसकी सूची इस प्रकार हैं१. अंग ११
४. मूल ४ २. उपांग १२ ५. प्रकीर्णक १० ३. छेद ६
६. चूलिका २ कुछ परम्परा ८४ आगमों को भी स्वीकार करती है।
आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण अंग एवं पूर्व-इन दो भागों में मिलता है। समवायांग में केवल द्वादशांगी का निरूपण है। आर्यरक्षित ने आगम-साहित्य को चार अनुयोगों में विभक्त किया१. चरणकरणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३. गणितानुयोग ४. द्रव्यानुयोग। आगम-संकलन के समय आगमों को दो वर्गों में विभक्त किया गया-अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य। नंदी में आगम की सारी शाखाओं का वर्णन मिलता है। उसमें काल की दृष्टि से भी आगमों का विभाग किया गया है। दिन और रात्रि के प्रथम एवं अंतिम प्रहर में पढ़े जाने वाले आगम कालिक तथा सभी प्रहरों में पढ़े जाने वाले आगम उत्कालिक कहलाते हैं। सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण में आगमों के चार विभाग मिलते हैं-१. अंग २. उपांग ३. मूल ४. छेद । वर्तमान में आगमों का यही वर्गीकरण अधिक प्रसिद्ध है। आगमों का कर्तृत्व एवं रचनाकाल
वैदिक परम्परा में वेदों को अपौरुषेय माना गया है अत: उनका रचनाकाल निर्धारित नहीं है।
१. विस्तार के लिए देखें-दसवेआलियं भूमिका पृ. २३-२५। २. सम. १/२।
३. दशअचू. पृ. २। ४. नंदी ७७, ७८॥
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