Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 82
________________ ज्ञान के पांच प्रकार [46 ___मनःपर्याय ज्ञान के भेद 37 तं च दुविहं उप्पज्जइ, तंजहा-उज्जुमती य विउलमती य / तं समासम्रो चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दव्बनो, खेत्तप्रो, कालो, भावो। तत्य दव्वानो णं उज्जमती अणते अणंतपदेसिए खंधे जाणइ पासइ, ते चेव विउलमती अमहियतराए, विउलतराए, विसुद्धतराए, वितिमिरतराए जाणइ पासइ।। खित्तनो णं-उज्जुमई जहन्नेणं अंगुलस्स प्रसंखेज्जइ भागं, उक्कोसेणं अहे जाव इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए उरिमहेविल्ले खुड्डगपयरे, उड्डे जाव जोइसस्स उरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु, पन्नरससु कम्मभूमिसु, तीसाए अकम्मभूमिसु, छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्निचिदियाणं पज्जत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई प्रडाइज्जेहिमंगुलेहि अभहियतरं, विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ पासइ। ___ कालग्रो णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिग्रोवमस्स प्रसंखिज्जइभागं उक्कोसएणवि पलिप्रोवमस्स असंखिज्जइभागं प्रतीयमणागयं वा कालं जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अबभहियतरागं विसुद्धतरागं, वितिमिरतरागं जाणइ पासइ / भावप्रो णं-उज्जुमई अणते भावे आणइ पासइ, सब्वभावाणं अणंतभागं जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ / ३७--मनःपर्यवज्ञान दो प्रकार से उत्पन्न होता है। यथा--(१) ऋजुमति (2) विपुलमति / दो प्रकार का होता हुआ भो यह विषय-विभाग की अपेक्षा चार प्रकार से है / यथा (1) द्रव्य से (2) क्षेत्र से (3) काल से (4) भाव से। (1) द्रव्य से-ऋजुमति अनन्त अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों को विशेष तथा सामान्य रूप से जानता व देखता है, और विपुलमति उन्हीं स्कन्धों को कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है। (2) क्षेत्र से-ऋजुमति जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को तथा उत्कर्ष से नीचे, इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन-अधस्तन क्षुल्लक प्रतर को और ऊँचे ज्योतिषचक्र के उपरितल पर्यंत और तिरछे लोक में मनुष्य क्षेत्र के अन्दर अढाई द्वीप समुद्र पर्यंत, पन्द्रह कर्मभूमियों, तीस अकर्मभूमियों और छप्पन अन्तरद्वीपों में वर्तमान संज्ञिपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों को जानता व देखता है। और उन्हीं भावों को विपुलमति अढ़ाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध और निर्मलतर तिमिररहित क्षेत्र को जानता व देखता है। (3) काल से----ऋजमति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट भी पल्योपम के असंख्यातवें भार माग भत और भविष्यत काल को जानता व देखता है। उसी काल को विपूलमति उससे कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और वितिमिर अर्थात् सुस्पष्ट जानता व देखता है। (4) भाव से-ऋजमति अनन्त भावों को जानता व देखता है, परन्तु सब भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता व देखता है / उन्हीं भावों को विपुलमति कुछ अधिक, विपुल, विशुद्ध और निर्मल रूप से जानता व देखता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253