________________ मतिमान [ 109 अपने पुत्र मुनि नन्दिषेण के आगमन का समाचार सुनकर राजा श्रेणिक को अपार हर्ष हया / वह अपने अन्तःपुर के सम्पूर्ण सदस्यों के साथ नगर के बाहर, जहाँ मुनिजन ठहरे थे, दर्शनार्थ आया / सभी संतों ने राजा श्रेणिक को, उनकी रानियों को तथा अपने गुरु नन्दिषेण की अनुपम रूपवती पत्नियों को देखा / उन्हें देख कर मुनि-वृत्ति त्यागने के इच्छुक, विचलित मन वाले उस साधु ने सोचा--"अरे! मेरे गुरु ने तो अप्सराओं को भी मात करने वाली इन रूपवती स्त्रियों को त्याग कर मुनि-धर्म ग्रहण किया है तथा मन, वचन, कर्म से सम्यक्तया इसका पालन कर रहे हैं, और मैं वमन किये हुए विषय-भोगों का पुनः सेवन करना चाहता हूँ ! धिक्कार है मुझे ! मुझे इस प्रकार विचलित होने का प्रायश्चित्त करना चाहिये।" ऐसे विचार आने पर वह मुनिः पुन: संयम में दृढ़ हो गया तथा प्रात्म-कल्याण में और अधिक तन्मयता से प्रवृत्त हुआ। यह सब मुनि नंदिषेण को पारिणामिकी बुद्धि के कारण हो सका। (7) धनदत्त---धनदत्त का उदाहरण श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र के अठारहवें अध्ययन में विस्तारपूर्वक दिया गया है, अतः उसमें से जानना चाहिये।। . (8) श्रावक-एक व्यक्ति ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये / 'स्वदारसंतोष' भी उनमें से एक था। बहुत समय तक वह अपने व्रतों का पालन करता रहा किन्तु कर्म-संयोग से एक बार उसने अपनी पत्नी की सखी को देख लिया और आसक्त होकर उसे पाने को इच्छा करने लगा / अपनी इस इच्छा को लज्जा के कारण वह व्यक्त नहीं करता था, किन्तु मन ही मन दुखो रहने के कारण दुर्बल होता चला जा रहा था। यह देखकर उसकी पत्नी ने एक दिन आग्रह करके उससे कारण पूछा। श्रावक की पत्नी बड़ी गुण-सम्पन्न श्राविका थी। उसने पति का तिरस्कार नहीं किया अपित विचार करने लगी—'अगर मेरे पति का इन्हीं कुविचारों के साथ निधन होगा तो उन्हें दुर्गति प्राप्त होगी / अतः ऐसा करना चाहिये कि इनके कलुषित विचार नष्ट हो जाएँ और व्रत-भंग न हो।' बहुत सोच विचार कर उसने एक उपाय खोज निकला / वह एक दिन पति से बोली-"स्वामिन ! मैंने अपनी सखी से बात कर ली है। वह अाज रात्रि को आपके पास आएगी. किन्तु पाएगी अँधेरे में / वह कुलीन घर की है अतः उजाले में आने में लज्जा अनुभव करती है / " पति से यह कहकर वह अपनी सखी के पास गई और उससे वही वस्त्राभूषण माँग लाई, जिन्हें पहने हुए उसके पति ने उसे देखा था। रात्रि को उसने उन्हें ही धारण किया और चुपचाप अपने पति के पास चली गई। किन्तु प्रात:काल होने पर श्रावक को घोर पश्चात्ताप हुा / वह अपनी पत्नी से कहने लगा-"मैंने बड़ा अनर्थ किया है कि अपना अंगीकृत व्रत भंग कर दिया / " पति को सच्चे हृदय से पश्चात्ताप करते देखकर पत्नी ने यथार्थ बात कह दी / श्रावक ने स्वयं को पतित होने से बचाने वाली अपनी पत्नी की सराहना की। अपने गुरु के समक्ष जाकर पालोचना करके प्रायश्चित्त किया। श्राविका पत्नी ने पारिणामिकी बुद्धि के द्वारा ही पति को नाराज किये बिना उसके व्रत की रक्षा की। (E) अमात्य-बहुत काल पहले कांपिल्यपुर में ब्रह्म नामक राजा था / उसकी रानी का नाम चुलनी था / चुलनी रानी ने एक बार चक्रवर्ती के जन्म-सूचक चौदह स्वप्न देखे तथा यथा-समय . . . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org