________________ श्रु तज्ञान] [175 इसी प्रकार अज्ञान दशा में रहने से ईश्वर भी सभी अपराधों को क्षमा कर देता है। इससे विपरीत ज्ञान दशा में किये गए सम्पूर्ण अपराधों का फल भोगना निश्चित है, अतः अज्ञानी ही रहना चाहिए। ज्ञान से राग-द्वेष आदि की वृद्धि होती है। (4) विनयवादी-इनका मत है कि प्रत्येक प्राणी, चाहे वह गुणहीन, शूद्र, चाण्डाल या अज्ञानी हो, अथवा पशु, पक्षी, साँप, बिच्छू या वृक्ष आदि हो, सभी वंदनीय हैं। इन सबकी विनयभाव से वंदना-प्रार्थना करनी चाहिए / ऐसा करने पर ही जीव परम-पद को प्राप्त कर सकता है। प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न दर्शनों का विस्तृत विवेचन किया है। क्रियावादियों के एक सौ अस्सी प्रकार हैं, प्रक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानवादियों के सड़सठ और विनयवाद के बत्तीस, इस प्रकार कुल तीन सौ सठ भेद होते हैं। प्रस्तुत सूत्र के दो स्कन्ध हैं। पहले स्कंध में तेईस अध्ययन और तेतीस उद्देशक हैं। दूसरे श्रु तस्कंध में सात अध्ययन तथा सात ही उद्देशक हैं। पहला श्रु तस्कंध पद्यमय है केवल सोलहवें अध्ययन में गद्य का प्रयोग हुआ है। दूसरे श्रु तस्कंध में गद्य तथा पद्य दोनों हैं। गाथा और छंदों के अतिरिक्त अन्य छंदों का भी उपयोग किया गया है। इसमें वाचनाएँ संख्यात हैं तथा अनुयोगद्वार, प्रतिपत्ति, वेष्टक, श्लोक, नियुक्तियाँ और अक्षर, सभी संख्यात हैं / छत्तीस हजार पद हैं / परिमित त्रस और अनन्त स्थावर जीवों का वर्णन है। सत्र में मुनियों को भिक्षाचरी में सतर्कता, परीषह-उपसर्गों में सहनशीलता, नारकीय दःख, महावीर स्तुति, उत्तम साधुओं के लक्षण, श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षुक तथा निग्रंथ आदि शब्दों की परिभाषा युक्ति, दृष्टान्त और उदाहरणों के द्वारा समझाई गई है। दुसरे श्रतस्कंध में जीव एवं शरीर के एकत्व, ईश्वर-कर्तृत्व और नियतिवाद आदि मान्यताओं का युक्तिपूर्वक खण्डन किया गया है। पुण्डरीक के उदाहरण से अन्य मतों का युक्तिसंगत उल्लेख क करते हुए स्वमत की स्थापना की गई है। तेरह क्रियानों का प्रत्याख्यान, आहार आदि का विस्तत वर्णन है। पाप-पुण्य का विवेक, आर्द्र ककुमार के साथ गोशालक, शाक्यभिक्षु, तापसों से हुए वाद-विवाद, आर्द्र कुमार के जीवन से संबंधित विरक्तता तथा सम्यक्त्व में दृढता का रुचिकर वर्णन है। अंतिम अध्ययन में नालंदा में हुए गौतम स्वामी एवं उदकपेढालपुत्र का वार्तालाप और अन्त में पेढालपुत्र के पंचमहाव्रत स्वीकार करने का सुन्दर वृत्तान्त है। सूत्रकृताङ्ग के अध्ययन से स्वमत-परमत का ज्ञान सरलता से हो जाता है। प्रात्म-साधना की वद्धि तथा सम्यक्त्व की दृढता के लिए यह अङ्ग अति उपयोगी है। इस पर भद्रबाहुकृत नियुक्ति, जिनदासमहत्तरकृत चूणि और शीलांकाचार्य की बृहद्वृत्ति भी उपलब्ध है। (3) श्री स्थानाङ्गसूत्र ८५-से कि तं ठाणे? ठाणे णं जीवा ठाविज्जति अजीवा ठाविज्जंति, जीवाजीवा ठाविज्जंति, ससमये ठाविज्जह परसमये ठाविज्जह, ससमय-परसमए ठाविज्जइ, लोए ठाविज्जइ, अलोए ठाविज्जइ, लोग्रालोए ठाविज्ज। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org