Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 228
________________ श्रुतज्ञान [195 (3) राशिबद्ध, (4) एकगुण, (5) द्विगुण, (6) त्रिगुण, (7) केतुभूत, (8) प्रतिग्रह, (9) संसारप्रतिग्रह (10) नंदावर्त (11) विप्रजहदावर्त्त / यह विप्रजहत्श्रेणिका परिकर्मश्र त है। विवेचन–विप्रजहतश्रेणिका का संस्कृत में 'विप्रजहच्छेणिका' शब्द-रूपान्तर होता है। विश्व में जितने भी हेय यानी परित्याज्य पदार्थ हैं, उनका इसी में अन्तर्भाव हो जाता है / प्रत्येक साधक की अपनी जीवनभूमिका औरों से भिन्न होती है अतः अवगुण भी भिन्न-भिन्न होते हैं / इसलिये जिसकी जैसी भूमिका हो उसके अनुसार साधक के लिए वैसे ही दोष एवं क्रियाएं परित्याज्य हैं। उदाहरण स्वरूप आयुर्वेदिक ग्रन्थों में जैसे भिन्न-भिन्न रोगों से ग्रस्त रोगियों के लिये कुपथ्य भिन्न-भिन्न होते हैं, इसी प्रकार साधकों को भी जैसी-जैसी दोष-रुग्णता हो, उनके लिये वैसी-वैसी अकल्याणकारी क्रियाएँ हेय या परित्याज्य होती हैं / इस परिकर्म में इन्हीं सब का विस्तार से वर्णन हो, ऐसी संभावना है। (7) च्युताऽच्युतश्रेणिका परिकर्म १०४-से कि तं चुनाचुअसेणिमा परिकम्मे ? चुनाचुसेणिमापरिकम्मे, एक्कारसविहे पन्नते, तं जहा-(१) पाढोनागासपयाई, (2) केउभूअं (3) रासिबद्ध, (4) एगगुणं, (5) दुगुणं, (6) तिगुणं, (7) केउभूअं (E) पडिग्गहो, (8) संसारपडिग्गहो, (10) नंदावतं. (11) चमाचमावतं. से तं च प्राच प्रसेणिया परिकम्मे / छ चउक्क नइयाई, सत्त तेरासियाई / से तं परिकम्मे / १०४--वह च्युताच्युत श्रेणिका परिकर्म कितने प्रकार का है ? वह ग्यारह प्रकार का है, यथा (1) पृथगाकाशपद, (2) केतुभूत, (3) राशिबद्ध, (4) एकगुण, (5) द्विगुण, (6) त्रिगुण, (7) केतुभूत, (8) प्रतिग्रह, (6) संसार-प्रतिग्रह, (10) नन्दावर्त्त, (11) च्युताच्युतावर्त, यह च्युताच्युतश्रोणिका परिकर्म सम्पूर्ण हुअा। उल्लिखित परिकर्म के ग्यारह भेदों में से प्रारम्भ के छह परिकर्म चार नयों के आश्रित हैं और अंतिम सात में त्रैराशिक मत का दिग्दर्शन कराया गया है। इस प्रकार यह परिकर्म का विषय हुआ। विवेचन—इस सूत्र में परिकर्म के सातवें और अन्तिम भेद च्युताच्युतश्रेणिका परिकर्म का वर्णन किया गया है / यद्यपि इसमें रहे हुए वास्तविक विषय और उसके अर्थ के बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि श्रत व्यवच्छिन्न हो गया है, फिर भी इसमें त्रैराशिक मत का विस्तृत वर्णन होना चाहिए। जैसे स्वसमय में सम्यकदृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि एवं संयत, असंयत और संयतासंयत, सर्वाराधक, सर्वविराधक तथा देश आराधक-विराधक की परिगणनाकी गई है, वैसे ही हो सकता है कि त्रैराशिक मत में अच्युत, च्युत तथा च्युताच्युत शब्द प्रचलित हों / टीकाकार ने उल्लेख किया है कि पूर्वकालिक आचार्य तीन राशियों का अवलम्बन करके वस्तुविचार करते थे। जैसे द्रव्यास्तिक, पर्यायास्तिक और उभयास्तिक / एक त्रैराशिक मत भी था जो दो राशियों के बदले एकान्त रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253