Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 236
________________ शुतज्ञान] [203 द्वादशाङ्ग श्रुत को विराधना का कुफल ११२-इच्चेइअं दुवालसंग गणिपिडगं तोए काले अणंता जोवा प्राणाए विराहिता चाउरतं संसार-कतारं अणुपरिट्टिसु / इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णकाले परित्ता जीवा प्राणाए विराहिता चाउरतं संसारकतारं अणुपरिट्ट ति / ___इच्चेइअं दुवालसंगं गणिपिडगं प्रणागए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरतं संसारकतारं अणुपरिट्टिस्संति / ११२-इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की भूतकाल में अनन्त जीवों ने विराधना करके चार गतिरूप संसार कान्तार में भ्रमण किया। इसी प्रकार इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की वर्तमानकाल में परिमित जीव आज्ञा से विराधना करके चार गतिरूप संसार में भ्रमण कर रहे हैं इसी प्रकार द्वादशाङ्ग गणिपिटक की आगामी काल में अनन्त जीव आज्ञा से विराधना करके चार गतिरूप संसार कान्तार में भ्रमण करेंगे / विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में वीतराग प्ररूपित शास्त्र-प्राज्ञा का उल्लंघन करने पर जो दुष्फल प्राप्त होता है वह बताते हुए कहा है-जिन जीवों ने द्वादशाक्षश्रत को विराधना की, वे चतगतिरूप संसार-कानन में भटके हैं, जो जीव विराधना कर रहे हैं वे वर्तमान में नाना प्रकार के दुःख भोग रहे हैं और जो भविष्य में विराधना करेंगे वे जीव अनागत काल में भव-भ्रमण करेंगे। प्राणाए विराहित्ता-सूत्र में यह पद दिया गया है। शास्त्रों में संसारी जीवों के हितार्थ जो कुछ कथन किया जाता है वही आज्ञा कहलाती है। अतः द्वादशाङ्ग गणिपिटक ही आज्ञा है / प्राज्ञा के तीन प्रकार बताए गए हैं, जैसे-सूत्राज्ञा, अर्थाज्ञा और उभयाज्ञा / (1) जमालिकुमार के समान जो अज्ञान एवं अनुचित हठ पूर्वक अन्यथा सूत्र पढ़ता है, वह सूत्राज्ञा-विराधक कहलाता है। (2) दुराग्रह के कारण जो व्यक्ति द्वादशांङ्ग की अन्यथा प्ररूपणा करता है वह अर्थाज्ञाविराधक होता है, जैसे गोष्ठामाहिल आदि / (3) जो श्रद्धाविहीन प्राणो द्वादशाङ्ग के शब्दों और अर्थ दोनों का उपहास करता हया अवज्ञापूर्वक विपरीत चलता है, वह उभयाज्ञा-विराधक होकर चतुर्गतिरूप संसार में परिभ्रमण करता रहता है। द्वादशाङ्ग-आराधना का सुफल ११३-इच्चेइअं दुवालसंग गणिपिडगं तीए काले अणंता जीवा प्राणाए प्राराहिता चाउरतं संसारकंतारं वोइवइंसु / इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णकाले परित्ता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीइवयंति। इच्चेइ दुवालसंग गणिपिडगं प्रणागए काले प्रणता जीवा प्राणाए पाराहित्ता चाउरतं संसारकंतारं वीइवइस्संति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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