________________ 204] [नन्दीसूत्र ११३-इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक की भूतकाल में प्राज्ञा से आराधना करके अनन्त जीव संसार रूप अटवी को पार कर गए। बारह-अङ्ग गणिपिटक की वर्तमान काल में परिमित जीव आज्ञा से आराधना करके चार गतिरूप संसार को पार करते हैं। इस द्वादशाङ्ग रूप गणिपिटक की आज्ञा से आराधना करके अनन्त जीव चार गति रूप संसार को पार करेंगे। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि द्वादशाङ्ग रूप गणिपिटक श्रुत की सम्यक आराधना करने वाले जीवों ने भूतकाल में इस संसार-कानन को निर्विघ्न पार किया है, प्राज्ञानुसार चलने वाले वर्तमान में कर रहे हैं और अनागतकाल में भी करेंगे। जिस प्रकार हिंस्र जन्तुओं से परिपूर्ण, नाना प्रकार के कष्टों की आशंकाओं से युक्त तथा अंधकार से आच्छादित अटवी को पार करने के लिए तीव्र प्रकाश-पुज की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जन्म, मरण, रोग, शोक आदि महान् कष्टों एवं संकटों से युक्त चतुर्गतिरूप संसार-कानन को भी श्र तज्ञानरूपी अनुपम तेज-पुज के सहारे से ही पार किया जा सकता है। श्र तज्ञान ही स्व-पर प्रकाशक है, अर्थात् आत्म-कल्याण और पर-कल्याण में सहायक है। इसे ग्रहण करने वाला हो उन्मार्ग से बचता हुआ सन्मार्ग पर चल सकता है तथा मुक्ति के उद्देश्य को सफल बना सकता है। गणिपिटक की शाश्वतता १४-इच्चेइन दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवई, न कयाइ न भविस्सइ। भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ अ। धुवे, निअए, सासए, अक्खए, अव्यए, अट्ठिए, निच्चे। से जहानामए पंचस्थिकाए न कयाइ नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ। भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे, नियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्टिए, निच्चे / एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे न कयाइ नासो, न कयाइ मस्थि, न कयाइ न भविस्सइ / भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ प्र, धुवे, नियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अट्टिए, निच्चे। से समासयो चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ, खित्तप्रो, कालो, भावप्रो, तत्थ दव्वयो णं सुनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ, पासइ, खित्तमो णं सुननाणी उवउत्ते सव्वं खेतं जाणइ, पासइ, कालो णं सुनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ, पासइ, भावनो णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ, पासइ / // सूत्र 57 / / 114- यह द्वादशाङ्ग गणिपिटक न कदाचित् नहीं था अर्थात् सदैवकाल था, न वर्तमान काल में नहीं है अर्थात् वर्तमान में है, न कदाचित् न होगा अर्थात् भविष्य में सदा होगा। भूतकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org