Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 239
________________ 206] [नन्दीसूत्र (6) अवस्थित-जैसे जम्बूद्वीप प्रादि महाद्वीप अपने प्रमाण में अवस्थित हैं, वैसे ही बारह अंगसूत्र भी अवस्थित हैं। (7) नित्य-जिस प्रकार आकाशादि द्रव्य नित्य हैं उसी प्रकार द्वादशाङ्ग गणिपिटक भी नित्य है। ये सभी पद द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से द्वादशाङ्ग गणिपिटक और पञ्चास्तिकाय के विषय में कहे गए हैं। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से गणिपिटक का वर्णन सादि-सान्त आदि श्रुत में किया जा चुका है / इस कथन से ईश्वरकतत्ववाद का भी निषेध हो जाता है। ___ संक्षिप्त रूप से श्रु तज्ञान का विषय कितना है, इसका भी उल्लेख सूत्रकार ने स्वयं किया है, यथा द्रव्यत:--श्रु तज्ञानो सर्वद्रव्यों को उपयोग पूर्वक जानता और देखता है / यहाँ शंका हो सकती है कि श्र तज्ञानी सर्वद्रव्यों को देखता कैसे है ? समाधान में यही कहा और चित्र द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है कि यह उपमावाची शब्द है, जैसे किसी ज्ञानी ने मेरु आदि पदार्थों का इतना अच्छा निरूपण किया मानो उन्होंने प्रत्यक्ष करके दिखा दिया हो। इसी प्रकार विशिष्ट श्रु तज्ञानी उपयोगपूर्वक सर्वद्रव्यों को, सर्वक्षेत्र को, सर्वकाल को और सर्व भावों को जानता व देखता है। इस सम्बन्ध में टीकाकार ने यह भी उल्लेख किया है—'अन्ये तु "न पश्यति" "इति पठन्ति" अर्थात् किसी-किसी के मत से 'न पासइ' ऐसा पाठ है, जिसका अर्थ है--श्र तज्ञानी जानता है किन्तु देखता नहीं है / यहाँ पर भी ध्यान में रखना चाहिए कि सर्व द्रव्य आदि को जानने वाला कम से कम सम्पूर्ण श्रुत-दश पूर्वो का या इससे अधिक का धारक ही होता है। इससे न्यून श्रु तज्ञानी के लिए भजना है-वह जान भी सकता है और कोई नहीं भी जान सकता श्रुतज्ञान के भेद और पठनविधि ११५-अक्खर सन्नी सम्म, साइमं खलु सपज्जवसि च / गमिअं अंगपविट्ठ, सत्तवि एए सपडिवक्खा // 1 // प्रागमसत्थरगहणं, जं बुद्धिगुणेहि अहिं दिट्ठ। बिति सुमनाणलंभं, तं पुवक्सिारया धीरा // 2 // सुस्सूसइ पडिपुच्छह, सुणेइ गिण्हइ प्र ईहए यावि / तत्तो प्रपोहए वा, धारेइ करेइ वा सम्मं // 3 // मून हुंकारं वा, बाढंकार पडिपुच्छ वोमंसा / तत्तो पसंगपारायणं च परिणिट्ठा सत्तमए / / 4 / / सुत्तत्थो खलु पढमो, बीनो निजत्तिमोसिनो भणियो। तइयो य निरवसेसो, एस विही होइ अणुप्रोगे // 5 // से तं प्रगपविटु, से तं सुननाणं, से तं परोक्खनाणं, से तं नन्दी। // नन्दी समत्ता // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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