Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 234
________________ श्रुतज्ञान] [201 विवेचन-चलिका अर्थात् चूला, शिखर को कहते हैं। जो विषय परिकर्म, सूत्र, पूर्व, तथा अनुयोग में वणित नहीं है, उस अवणित विषय का वर्णन चूला में किया गया है। चूर्णिकार ने कहा है "दिट्टिवाये जं परिकम्म-सुत्त-पुव्व-अणुओगे न भणियं तं चूलासु भणियं ति / " चूलिका आधुनिक काल में प्रचलित परिशिष्ट के समान है। इसलिए दृष्टिवाद के पहले चार भेदों का अध्ययन करने के पश्चात् ही इसे पढ़ना चाहिये। इसमें उक्त-अनुक्त विषयों का संग्रह है। यह दृष्टिवाद की चूला है आदि के चार पूर्वो में चूलिकाओं का उल्लेख है, शेष में नहीं। इस पाँचवें अध्ययन में उन्हीं का वर्णन है / चूलिकाएँ उन-उन पूर्वो का अंग हैं। चूलिकाओं में क्रमशः 4, 12, 8, 10 इस प्रकार 34 वस्तुएँ हैं / श्रु तरूपी मेरु चूलिका से ही सुशोभित है अतः इसका वर्णन सबके बाद किया गया है / दृष्टिवादाङ्ग का उपसंहार ११०–दिदिवायस्स णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणमोगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जानो पडिवत्तीग्रो, संखिज्जानो निज्जुत्तीप्रो, संखेज्जास्रो संगहणीयो। से णं अंगट्ठयाए बारसमे अंगे, एगे सुप्रखंधे, चोहसपुव्वाई, संखेज्जा वत्यू, संखेज्जा चूलवत्थू, संखेज्जा पाहुडा, संखेज्जा पाहुडपाहुडा, संखेज्जानो पाहुडिप्रायो, संखेज्जाओ पाहुडपाहुडियानो, संखेज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अर्णता गमा, प्रणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासय-का-निबद्ध-निकाइया जिणपन्नत्ता भावा प्राधविज्जति, पण्णबिज्जंति, परूविजंति, दसिज्जंति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जति / से एवं प्राया, एवं नाया, एवं विन्नाया, एवं चरण-करण परूवणा प्राधविज्जति / से त्तं दिद्विवाए। // सूत्र 56 / / ११०-दृष्टिवाद की संख्यात वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ (छन्द), संख्यात प्रतिपत्तियाँ, संख्यात नियुक्तियाँ और संख्यात संग्रहणियाँ हैं। अङ्गार्थ से वह बारहवाँ अंग है / एक श्रुतस्कन्ध है और चौदह पूर्व हैं / संख्यात वस्तु, संख्यात चूलिका वस्तु, संख्यात प्राभृत, संख्यात प्राभूतप्राभूत, संख्यात प्राभतिकाएं, संख्यात प्राभृतिकाप्राभृतिकाएं हैं। इसमें संख्यात सहस्रपद हैं। संख्यात अक्षर और अनन्त गम हैं। अनन्त पर्याय, परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावरों का वर्णन है। शाश्वत, कृत-निबद्ध, निकाचित जिन-प्रणीत भाव कहे गए हैं / प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से स्पष्ट किए गए हैं / दृष्टिवाद का अध्येता तद्र प आत्मा और भावों का सम्यक् ज्ञाता तथा विज्ञाता बन जाता है / इस प्रकार चरण-करण की प्ररूपणा इस अङ्ग में की गई है। ___ यह दृष्टिवादाङ्ग श्रुत का विवरण सम्पूर्ण हुा / विवेचन-दृष्टिवाद अङ्ग में भी पूर्व के अङ्गों की भांति परिमित वाचनाएं और संख्यात अनुयोगद्वार हैं। किन्तु इसमें वस्तु, प्राभूत, प्राभृतप्राभृत और प्राभृतिका की व्याख्या नहीं की गई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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