________________ 196] [नन्दीसूत्र तीन ही राशियाँ मानता था। सूत्र में “छ चउक्कनइआई, सत्त तेरासियाई" यह पद दिया गया है। इसका भाव यह है कि आदि के छः परिकर्म चार नयों की अपेक्षा से वर्णित हैं और इनमें स्वसिद्धांत का वर्णन किया गया है तथा सातवें परिकर्म में त्रैराशिक का उल्लेख है। (2) सूत्र १०५-से कि तं सुत्ताई? सुत्ताई बावीसं पन्नत्ताई, तं जहा (1) उज्जुसुयं, (2) परिणयापरिणयं, (3) बहुभंगिअं, (4) विजयचरिअं, (5) अणंतरं, (6) परंपरं, (7) प्रासाणं, (8) संजूह, (9) संभिण्णं, (10) अहवायं, (11) सोवत्थिावत्तं, (12) नंदावत्तं, (13) बहुलं, (14) पुट्ठापुढे (15) विआवत्तं, (16) एवंभूअं, (17) दुयावतं, (18) वत्तमाणपयं, (19) समभिरूढं, (20) सव्वओभद्द, (21) पस्सास (22) दुप्पडिग्गहं। इच्चेइमाई बाबीसं सुत्ताई छिन्नच्छेअनइआणि ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइमाई बावीसं सुत्ताई प्रच्छिन्नच्छेअनइआणि प्राजीविग्रसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइआई बावीस सुत्ताइं तिग-गइयाणि तेरासियसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइआई बावीसं सुत्ताई चउक्कनइयाणि ससमयसुत्त-परिवाडीए / एवामेव सपुव्वावरेण अट्ठासीई सुत्ताई भवतीतिमक्खायं, से तं सुत्ताई। १०५–भगवन् ! वह सूत्ररूप दृष्टिवाद कितने प्रकार का है ? गुरु ने उत्तर दिया--सूत्र रूप दृष्टिवाद बाईस प्रकार से प्रतिपादन किया गया है / जैसे (1) ऋजुसूत्र, (2) परिणतापरिणत, (3) बहुभंगिक, (4) विजयचरित, (5) अनन्तर, (6) परम्पर, (7) अासान, (8) संयूथ, (6) सम्भिन्न, (10) यथावाद, (11) स्वस्तिकावत, (12) नन्दावत, (13) बहल, (14) पृष्टापृष्ट, (15) व्यावत, (16) एवंभूत, (17) द्विकावत, (18) वर्तमानपद, (19) समभिरूढ़, (20) सर्वतोभद्र, (21) प्रशिष्य, (22) दुष्प्रतिग्रह / ये बाईस सूत्र छिन्नच्छेद-नयवाले, स्वसमय सूत्र परिपाटी अर्थात् स्वदर्शन की वक्तव्यता के आश्रित हैं / यह ही बाईस सूत्र आजीविक गोशालक के दर्शन की दृष्टि से अच्छिन्नच्छेद नय वाले हैं। इसी प्रकार से ये ही सूत्र त्रैराशिक सूत्र परिपाटी से तीन नय वाले हैं और ये ही बाईस सूत्र स्वसमयसिद्धान्त की दृष्टि से चतुष्क नय वाले हैं / इस प्रकार पूर्वापर सर्व मिलकर अट्ठासी सूत्र हो जाते हैं / यह कथन तीर्थंकर और गणधरों ने किया है / यह सूत्ररूप दृष्टिवाद का वर्णन है। विवेचन-इस सूत्र में अट्ठासी सूत्रों का वर्णन है। इनमें सर्वद्रव्य, सर्वपर्याय, सर्वनय और सर्वभंग-विकल्प नियम आदि बताए गए हैं / / वृत्तिकार और चूर्णिकार, दोनों के मत से उक्त सूत्र में बाईस सूत्र छिन्नच्छेद नय के मत से स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले हैं और ये ही सूत्र अछिन्नच्छेद नय की दृष्टि से प्रबन्धक, भैराशिक और नियतिवाद का वर्णन करते हैं / छिन्नच्छेद नय उसे कहा जाता है, जैसे-कोई पद अथवा श्लोक दूसरे पद की अपेक्षा न करे और न दूसरा पद ही प्रथम की अपेक्षा रखे / यथा-"धम्मो मंगलमुक्किठें।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org