Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 218
________________ मतिज्ञान [185 प्राप्त किया उनका वर्णन है तथा छठे वर्ग से लेकर आठवें तक में श्रेष्ठी, राजकुमार तथा राजा श्रेणिक की महारानियों के तप:पूत जीवन का उल्लेख है जिन्होंने संयम धारण करके घोर तपस्या एवं उत्कृष्ट चारित्र की आराधना करते हुए अन्त में संथारे के द्वारा कर्म-क्षय करके सिद्ध-पद की प्राप्ति की / अन्तिम श्वासोच्छवास में कैवल्य प्राप्त करके मोक्ष जाने वाली नब्बे प्रात्माओं का इसमें वर्णन है / सूत्र की शैली ऐसी है कि एक का वर्णन करने पर शेष वर्णन उसी प्रकार से पाया है। जहाँ आयु, संथारा अथवा क्रियानुष्ठान में विविधता या विशेषताएँ थीं, उसका उल्लेख किया गया है। सामान्य वर्णन सभी का एक जैसा ही है / अध्ययनों के समूह का नाम वर्ग है. शेष वर्णन भावार्थ में दिया जा चुका है। (9) श्री अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र से कि तं अयुत्तरोववाइअदसाओ? अणुत्तरोववाइप्रदसासु णं अणुत्तरोवबाइपाणं नगराई, उज्जाणाई, चेइआइं, वणसंडाई, समोसरणाई, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहानो, इहलोइअपरलोइया इढिविसेसा, भोगपरिच्चागा, पन्चज्जानो, परिधागा, सुअपरिग्गहा, तवोवहाणाइं, पडिमाओ, उवसम्गा, संलेहणाओ मत्तपच्चक्खाणाई, पाप्रोवगमणाई, अणुत्तरोववाइयत्ते उववत्ती, सुकुलपच्चायाईओ, पुणबोहिलाभा, अंतकिरियानो पाविज्जति। अणुत्तरोक्वाइअदसासु णं परित्ता वायणा, संखेज्जा प्रणयोगद्वारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जाप्रो निज्जुत्तीओ, संखेज्जाओ संगहणीनो संखेज्जाम्रो पडिवत्तीनो। से णं अंगट्टयाए नवमे अंगे, एगे सुप्रखंधे तिण्णि वग्गा, तिणि उद्देसणकाला, तिण्णि समुद्देसणकाला, संखेज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइमा जिणपण्णत्ता भावा प्राविज्जति, पन्नविजंति, परूविज्जति, दंसिज्जंति, निदंसिज्जति, उवदंसिज्जति / से एवं आया, एवं नाया, एवं विन्नाया, एवं चरण-करणपरूवणा प्राविज्जइ। से तं अणुत्तरोववाइअदसाम्रो। / / सूत्र 54 / / प्रश्न-भगवन् ! अनुत्तरौपपातिक-दशा सूत्र में क्या वर्णन है ? उत्तर-अनुत्तरौपपातिक दशा में अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होनेवाले पुण्यशाली अात्माओं के नगर, उद्यान, व्यन्तरायन, बतखण्ड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इस लोक और परलोक सम्बन्धी ऋद्धिविशेष, भोगों का परित्याग, दीक्षा, संयमपर्याय, श्रुत का अध्ययन, उपधानतप, प्रतिमाग्रहण, उपसर्ग, अंतिम संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोषगमन तथा मृत्यु के पश्चात् अनुत्तर-सर्वोत्तम विजय आदि विमानों में उत्पत्ति / पुनः वहाँ से चवकर सुकुल की प्राप्ति, फिर बोधिलाभ और अन्तक्रिया इत्यादि का वर्णन है / अनुत्तरौपपातिक दशा में परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात श्लोक संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं। यह सूत्र अंग की अपेक्षा से नवमा अंग है। इसमें एक श्र तस्कन्ध, तीन वर्ग, तीन उद्देशनकाल और तीन समुद्दे शनकाल हैं / पदाग्र परिमाण से संख्यात सहस्र पद हैं / संख्यात अक्षर. अनन्त गम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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