________________ 190] [नन्दीसूत्र से गं अंगदयाए इक्कारसमे अंगे, दो सुक्खंधा, वीसं अज्झयणा, वीसं उह सणकाला, वीसं समुद्दे सणकाला, संखिज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइया जिणपण्णत्ता भावा आधविज्जति, पन्नविज्जंति, परूविज्जंति, दंसिज्जति, निर्दसिज्जति, उवदंसिज्जति / से एवं प्राया, एवं नाया, एवं विन्नाया, एवं चरण-करणपरूवणा प्राधविज्जइ / से तं विवागसुयं / // सूत्र 56 / / ___१५–विपाकश्रु त में परिमित वाचना, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियां संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं। अंगों की अपेक्षा से बह ग्यारहवाँ अंग है / इसके दो थ तस्कंध, बोस अध्ययन, बीस उद्देशनकाल और बीस समुद्देशनकाल हैं / पद परिमाण से संख्यात सहस्र पद हैं, संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर, शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिनप्ररूपित भाव हेतु आदि से निर्णीत किए गए हैं, प्ररूपित किए गए हैं, दिखलाए गए हैं, निशित और उपदर्शित किए गए हैं। विपाकश्रु त का अध्ययन करनेवाला एवंभूत आत्मा, ज्ञाता तथा विज्ञाता बन जाता है / इस तरह से चरण-करण की प्ररूपणा की गई है / इस प्रकार यह विपाकश्रु त का विषय वर्णन किया गया। विवेचन-उपर्युक्त पाठ में सुखविपाक के विषय का विवरण दिया गया है। विपाकसूत्र के दूसरे श्रु तस्कंध का नाम सुखविपाक है / इस अंग के दस अध्ययन हैं, जिनमें उन भव्य एवं पुण्यशाली आत्माओं का वर्णन है, जिन्होंने पूर्वभव में सुपात्रदान देकर मनुष्य भव की आयु का बंध किया और मनुष्यभव प्राप्त करके अतुल वैभव प्राप्त किया। किन्तु मनुष्यभव को भी उन्होंने केवल सांसारिक सुखोपभोग करके ही व्यर्थ नहीं गँवाया, अपितु अपार ऋद्धि का त्याग करके संयम ग्रहण किया और तप-साधना करते हुए शरीर त्यागकर देवलोकों में देवत्व की प्राप्ति की। भविष्य में वे महाविदेह क्षेत्र में निर्वाण पद प्राप्त करेंगे / यह सब सुपात्रदान का माहात्म्य है / सूत्र में सुबाहुकुमार की कथा विस्तारपूर्वक दी गई है, शेष सब अध्ययनों में संक्षिप्त वर्णन है / इन कथाओं से सहज ही ज्ञात हो जाता है कि पुण्यानुबन्धी पुण्य का फल कितना कल्याणकारी होता है। सुखविपाक में वर्णित दस कुमारों की कथाओं के प्रभाव से भव्य श्रोताओं अथवा अध्येताओं के जीवन में भी शनैः-शनैः ऐसे गुणों का आविर्भाव हो सकता है, जिनसे अन्त में सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करते हुए वे निर्वाण पद की प्राप्ति कर सकें। (12) श्री दृष्टिवादश्रुत ६६-से कि तं दिट्ठिवाए ? दिद्विवाए णं सब्वभावपरूवणा प्रायविज्जइ से समासमो पंचविहे पन्नत्ते, तं जहा(१) परिकम्मे (2) सुत्ताई (3) पुव्वगए (4) अणुप्रोगे (5) चूलिया / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org