Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 224
________________ श्रुतज्ञान] ९६-प्रश्न-दृष्टिवाद क्या है ? उत्तर-दृष्टिवाद-सब नयदृष्टियों का कथन करने वाले श्रु त में समस्त भावों की प्ररूपणा है / संक्षेप में वह पाँच प्रकार का है / यथा:-(१) परिकर्म (2) सूत्र (3) पूर्वगत (4) अनुयोग और (5) चूलिका। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में दृष्टिवाद का संक्षिप्त परिचय दिया गया है / यह अङ्गश्रत जैनआगमों में सबसे महान् और महत्त्वपूर्ण है, किन्तु वर्तमान काल में उपलब्ध नहीं है। इसका विच्छेद हुए लगभग पन्द्रह सौ वर्ष हो चुके हैं / 'दिठ्ठिवाय' शब्द प्राकृत भाषा का है और संस्कृत में इसका रूप 'दृष्टिवाद' या 'दष्टिपात' होता है। दृष्टि शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं। नेत्रशक्ति, ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, नय आदि। संसार में जितने दर्शन हैं, जितना श्र त-ज्ञान है और नयों की जितनी भी पद्धतियाँ हैं, उन सभी का समावेश दृष्टिवाद में हो जाता है / प्रत्येक वह शास्त्र, जिसमें दर्शन का विषय मुख्यरूप से वणित हो, वह दृष्टिवाद कहला सकता है / यद्यपि दृष्टिवाद का व्यवच्छेद सभी तीर्थकरों के शासनकाल में होता रहा है, किन्तु बीच के आठ तीर्थंकरों के समय में कालिक श्रु त का भी व्यवच्छेद हो गया था। कालिकश्रु त के व्यवच्छेद होने से भाव-तीर्थ भी लुप्त हो गया। फिर भी श्रतिपरम्परा से उसको कुछ अंश में व्याख्या की जाती है / इसके विषय में वृत्तिकार ने लिखा है-- "सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि लेशतो यथागतसम्प्रदाय किञ्चित् व्याख्यायते / " अर्थात्-सम्पूर्ण दृष्टिवाद का प्रायः व्यवच्छेद हो गया तथापि श्रुतिपरम्परा से उसकी अंश मात्र व्याख्या की जाती है। सम्पूर्ण दृष्टिवाद पाँच भागों में विभक्त है--परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका / क्रमानुसार सभी का वर्णन किया जाएगा। (1) परिकर्म ९७---से कि तं परिकम्मे ? परिकम्मे सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा (1) सिद्धसेणिग्रापरिकम्मे (2) मणुस्ससेणिग्रापरिकम्मे (3) पुट्ठसे णिग्रापरिकम्मे (4) प्रोगाढसेणिमापरिकम्मे (5) उपसंपज्जणसेणिआपरिकम्मे (6) विष्पजहणसेणियापरिकम्मे (7) चुनाचुअसे णिग्रापरिकम्मे। ९७–परिकर्म कितने प्रकार का है ? परिकर्म सात प्रकार का है, यथाः (1) सिद्ध-श्रेणिकापरिकर्म (2) मनुष्य-श्रोणिकापरिकर्म (3) पुष्ट-श्रेणिकापरिकर्म (5) अवगाढ-श्रेणिकापरिकर्म (5) उपसम्पादन-श्रेणिकापरिकर्म (6) विप्रजहत् श्रेणिकापरिकर्म (7) च्युताच्युतश्रेणिका-परिकर्म। विवेचन-जिस प्रकार गणितशास्त्र में संकलना आदि सोलह परिकर्म के अध्ययन से सम्पूर्ण गणित को समझने की योग्यता प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार परिकर्म का अध्ययन करने से दृष्टिवाद के शेष सूत्रों को ग्रहण करने की योग्यता आती है और दृष्टिवाद के अन्तर्गत रहे सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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