Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 219
________________ 186] [नन्दीसूत्र अनन्त पर्याय, परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावरों का वर्णन है / शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन भगवान् द्वारा प्रणीत भाव कहे गए हैं / प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से सुस्पष्ट किए गए हैं। अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र का सम्यक् रूपेण अध्ययन करने वाला तद्रूप आत्मा, ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है / इस प्रकार चरण-करण की प्ररूपणा उक्त अंग में की गई है। यह इस अङ्ग का विषय है / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में अनुत्तरौषपातिक अंग का संक्षिप्त परिचय दिया गया है / अनुत्तर का अर्थ है-अनुपम या सर्वोत्तम / बाईसवें, तेईसवें, चौबीसवें, पच्चीसवें तथा छब्बीसवें देवलोकों में जो विमान हैं वे अनुत्तर विमान कहलाते हैं / उन विमानों में उत्पन्न होने वाले देवों को अनुत्तरौपपातिक देव कहते हैं। इस सूत्र में तीन वर्ग हैं। पहले वर्ग में दस, दूसरे में तेरह और तीसरे में भी दस अध्ययन हैं। प्रथम और अन्तिम वर्ग में दस-दस अध्ययन होने से सूत्र को अनुत्तरौपपतिकदशा कहते हैं / इसमें उन तेतीस महान् आत्माओं का वर्णन है, जिन्होंने अपनी तपःसाधना से समाधिपूर्वक काल करके अनुत्तर विमानों में देवताओं के रूप में जन्म लिया और वहाँ की स्थिति पूरी करने के बाद एक बार ही मनुष्य गति में प्राकर मोक्ष प्राप्त करेंगे। तेतीस में से तेईस तो राजा श्रेणिक की चेलना, नन्दा और धारिणी रानियों के पात्मज थे और शेष दस में से एक धन्ना (धन्य) मुनि का भी वर्णन है / धन्ना मुनि की कठोर तपस्या और उसके कारण उनके अंगों की क्षीणता का बड़ा ही मार्मिक और विस्तृत वर्णन है। साधक के आत्मविकास के लिए भी अनेक प्रेरणात्मक क्रियाओं का निर्देश किया गया है। जैसे-श्रुतपरिग्रह, तपश्चर्या, प्रतिमावहन, उपसर्गसहन, संलेखना श्रादि / उक्त सभी प्रात्म-कल्याण के अमोघ साधन हैं / इन्हें अपनाए बिना मुनि-जीवन निष्फल हो जाता है। सिद्धत्व को प्राप्त करने वाले महापुरुषों के उदाहरण प्रत्येक प्राणी का पथ-प्रदर्शन करते हैं / शेष वर्णन पूर्ववत् है। (10) श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र ९२-से कि तं पण्हावागरणाई ? पहावागरणेसु णं अठ्ठत्तरं पसिण-सयं, अद्वैतरं पसिणापसिण-सयं, तं जहा-अंगुटपसिणाई, बाहुपसिणाई, अद्दागपसिणाई, अन्नेवि विचित्ता विज्जाइसया, नागसुवण्णेहिं सद्धि दिव्वा संवाया प्राविज्जति। पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुनोगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जानो निज्जुत्तीग्रो, संखेज्जाश्रो संगहणीप्रो, संखेज्जाप्रो पडिवत्तीयो। से गं अंगठ्ठयाए दसमें अंगे, एगे सुमक्खंधे, पणयालोसं अज्झयणा, पणयालीसं उद्देसणकाला, पणयालीसं समुद्देसणकाला, संखेज्जाई पयसहस्साई पयग्गेणं, संखेज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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