________________ मतिज्ञान] [145 विवेचन-इन्द्रियों की उत्कृष्ट शक्ति--श्रोत्रेन्द्रिय की उत्कृष्ट शक्ति है बारह योजन से पाए हए शब्द को सुन लेना। नौ योजन से पाए हए गन्ध, रस और स्पर्श के पूदगलों को ग्रहण करने की उत्कृष्ट शक्ति घ्राण, रसना एवं स्पर्शन इन्द्रियों में होती है / चक्षुरिन्द्रिय की शक्ति रूप को ग्रहण करने की लाख योजन से कुछ अधिक है। यह कथन अभास्वर द्रव्य की अपेक्षा से है किन्तु भास्वर द्रव्य तो इक्कीस लाख योजन की दूरी से भी देखा जा सकता है। जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण कर सकती हैं। मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द निम्नलिखित हैं(१) ईहा--सदर्थ का पर्यालोचन / (2) अपोह-निश्चय करना। (3) विमर्श---ईहा और अवाय के मध्य में होने वाली विचारधारा / (4) मार्गणा-अन्वय धर्मों का अन्वेषण करना। गवेषणा-व्यतिरेक धर्मों से व्यावृत्ति करना / संज्ञा--अतीत में अनुभव की हुई और वर्तमान में अनुभव की जानेवाली वस्तु की एकता का अनुसंधान ज्ञान / (7) स्मृति- अतीत में अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण करना। (8) मति-जो ज्ञान वर्तमान विषय का ग्राहक हो। (6) प्रज्ञा-विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न यथावस्थित वस्तुगत धर्म का पर्यालोचन करना। (10) बुद्धि---अवाय का अंतिम परिणाम / ये सब प्राभिनिवोधिक ज्ञान में समाविष्ट हो जाते हैं। जातिस्मरण ज्ञान के द्वारा भी, जो कि मतिज्ञान को ही एक पर्याय है, उत्कृष्ट नौ सौ संज्ञी के रूप में हुए अपने भव जाने जा सकते हैं। जब मतिज्ञान की पूर्णता हो जाती है, तब वह नियमेन अप्रतिपाती हो जाता है / उसके होने पर केवलज्ञान होना निश्चित है / किन्तु जघन्य-मध्यम मतिज्ञानी को केवलज्ञान हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। इस प्रकार मतिज्ञान का विष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org