Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 200
________________ श्रतज्ञान] [167 आचार-पाचारांग को ग्रहण-धारण करने वाला, उसके अनुसार क्रिया करने वाला, प्राचार को साक्षात् मूर्ति बन जाता है। वह भावों का ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार आचारांग सूत्र में चरण-करण की प्ररूपणा की गई है। यह आचारङ्ग का स्वरूप है। विवेचन-नाम के अनुसार ही पाचाराङ्ग में श्रमण की प्राचारविधि का वर्णन किया गया है। इसके दो श्रु तस्कन्ध हैं। दोनों ही श्रुतस्कंध अध्ययनों में और प्रत्येक अध्ययन उद्देशकों में अथवा चूलिकाओं में विभाजित है। आचरण को ही दूसरे शब्द में आचार कहा जाता है। अथवा पूर्वपुरुषों ने जिस ज्ञानादि की आसेवन विधि का आचरण किया, उसे प्राचार कहा गया है और इस प्रकार का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को प्राचाराङ्ग कहते हैं / प्राचाराङ्ग के विषय पांच प्राचार हैं, यथा (1) ज्ञानाचार-ज्ञानाचार के पाठ भेद हैं-काल, विनय, बहमान, उपधान, अनिलवण, व्यंजन, अर्थ और तदुभय / इन्हें संक्षेप में निम्न प्रकार से समझा जा सकता है--- (1) काल-आगमों में जिस समय जिस सूत्र को पढ़ने की आज्ञा है, उसी समय उस सूत्र का पठन करना। (2) विनय-अध्ययन करते समय ज्ञान और ज्ञानदाता गुरु के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखना / (3) बहुमान-ज्ञान और ज्ञानदाता के प्रति गहरी आस्था एवं बहुमान का भाव रखना / (4) उपधान--आगमों में जिस सूत्र को पढ़ने के लिए जिस तप का विधान किया गया हो, अध्ययन करते समय उस तप का आचरण करना / तप के बिना अध्ययन फलप्रद नहीं होता। (5) अनिह्नवण-ज्ञान और ज्ञानदाता के नाम को नहीं छिपाना / (6) व्यञ्जन-~-यथाशक्ति सूत्र का शुद्ध उच्चारण करना / शुद्ध उच्चारण निर्जरा का और अशुद्ध उच्चारण अतिचार का हेतु होता है। (7) अर्थ-सूत्रों का प्रामाणिकता से अर्थ करना, स्वेच्छा से जोड़ना या घटाना नहीं। (8) तभय आगमों का अध्ययन और अध्यापन विधिपूर्वक निरतिचार रूप से करना तदुभय ज्ञानाचार कहलाता है। (2) दर्शनाचार-सम्यक्त्व को दृढ़, एवं निरतिचार रखना / हेय को त्यागने की और उपादेय को ग्रहण करने को रुचि का होना ही निश्चय सम्यक्त्व है तथा उस रुचि के बल से होने वाली धर्मतत्त्वनिष्ठा व्यवहार-सम्यक्त्व है / दर्शनाचार के भी पाठ भेद-अंग बताए गए हैं (1) निःशंकित-पात्मतत्त्व पर श्रद्धा रखना, अरिहंत भगवन्त के उपदेशों में, केवलिभाषित धर्म में तथा मोक्ष प्राप्ति के उपायों में शंका न रखना / / (2) नि:कांक्षित-सच्चे देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के अतिरिक्त कुदेव, कुगुरु, धर्माभास और शास्त्राभास की आकांक्षा न करना, सच्चे जौहरी के समान जो असली रत्नों को छोड़कर नकली रत्नों को पाने की इच्छा नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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