Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 199
________________ [नन्दोसूत्र विवेचन- इस सूत्र में अङ्गप्रविष्ट सूत्रों का नामोल्लेख किया गया है। सूत्रकार अग्रिम सूत्रों में क्रमशः बताएँगे कि किस सूत्र में क्या-क्या विषय है। इससे जिज्ञासुत्रों को सभी अङ्ग सूत्रों का सामान्यतया ज्ञान हो सकेगा। द्वादशांगी गणिपिटक ८३-से कि तं पायारे ? प्रायारेणं समणाणं निग्गंथाणं प्रायार-गोअर-विणय-वेणइप्र-सिक्खा-भासा-प्रभासा-चरणकरण-जाया-माया-वित्तीयो प्राविति / से समासो पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-(१) नाणायारे (2) दंसणायारे (3) चरित्तायारे (4) तपायारे (5) वीरियायारे / प्रायारे ण परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुप्रोगदारा, संखिज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखिजजाम्रो निज्जत्सीयो, संखिज्जापो पडिवत्तीयो। से गं अंगठ्याए पढमे अंगे, दो सुप्रखंधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासोइ उद्दसणकाला, पंचासीइ समुह समकाला, अट्ठारस पयसहस्साणि पयग्गेणं, संखिजा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पउजवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइमा, जिणपण्णत्ता मावा प्रायविज्जंति, पन्नविज्जति, परूविज्जति दंसिज्जति, निदंसिज्जति, उवदंसिज्जति / से एवं आया, एवं नाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करण-परूवणा प्राधविज्जइ / से तं प्राधारे। // सूत्र 46 / / ८३-याचाराङ्ग श्रुत किस प्रकार का है। प्राचाराङ्ग में बाह्य-आभ्यंतर परिग्रह से रहित श्रमण निर्ग्रन्थों का प्राचार,गोचर-भिक्षा के ग्रहण करने की विधि, विनय-ज्ञानादि की विनय, विनय का फल-कर्मक्षय आदि, ग्रहण और आसेवन रूप शिक्षा तथा शिष्य को सत्य और व्यवहार भाषा बोलने योग्य है और मिश्र तथा असत्य भाषा त्याज्य हैं. चरण-व्रतादि, करण-पिण्डविशुद्धि आदि, यात्रा-संयम का निर्वाह औ र नाना प्रकार के अभिग्रह धारण करके विचरण करना इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है। वह प्राचार संक्षेप में पाँच प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे (1) ज्ञानाचार (2) दर्शनाचार (3) चारित्राचार (4) तपाचार और (5) वीर्याचार / प्राचारभुत में सूत्र और अर्थ से परिमित वाचनाएँ हैं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ-छंद, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ और संख्यात प्रत्तिपत्तियाँ वणित हैं। प्राचाराङ्ग अर्थ से प्रथम अंग है। उसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, पच्चीस अध्ययन हैं / पच्यासो उद्देशनकाल हैं, पच्यासो समुद्दशनकाल हैं। पदपरिमाण से अठारह हजार पद हैं। संख्यात अक्षर हैं / अनन्त गम और अनन्त पर्यायें हैं। परिमित त्रस और अनन्त स्थावर जोवों का वर्णन है। शाश्वत-धर्मास्तिकाय आदि, कृल-प्रयोगज-घटादि, विश्रसा-स्वाभाविक-सन्ध्या, बादलों आदि का रंग, ये सभी प्राचारांग सूत्र में स्वरूप से वणित हैं। नियुक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण आदि अनेक प्रकार से जिन-प्रज्ञप्त भाव-पदार्थ, सामान्य रूप से कहे गए हैं। नामादि से प्रज्ञप्त हैं। विस्तार से कथन किये गये हैं / उपमान आदि से और निगमन से पुष्ट किये गए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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