Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 203
________________ 170] [नन्दीसूत्र (2) ज्ञानाचार के आठ और दर्शनाचार के आठ भेद, पाँच समिति, तीन गुप्ति तथा तप के बारह भेदों को भलीभांति समझते हुए इन छत्तीसों प्रकार के शुभ अनुष्ठानों में यथासंभव अपनी शक्ति को प्रयुक्त करना। (3) अपनी इन्द्रियों की तथा मन की शक्ति को मोक्ष-प्राप्ति के उपायों में सामर्थ्य के अनुसार अवश्य लगाना। प्राचारान के अन्तर्वर्ती विषय __ आचारश्रु त के पठन-पाठन और स्वाध्याय से अज्ञान का नाश होता है तथा तदनुसार क्रियानुष्ठान करने से आत्मा तद्रूप यानी ज्ञान-रूप हो जाता है। कर्मों की निर्जरा, कैवल्य-प्राप्ति तथा सर्वदा के लिए सम्पूर्ण दु:खों से प्रात्मा मुक्ति प्राप्त कर सके, इसलिए उक्त सूत्र में चरण-करण आदि की प्ररूपणा की गई है / अर्थ इस प्रकार है चरण-पाँच महाव्रत, दस प्रकार का श्रमण धर्म, सत्रह प्रकार का संयम, दस प्रकार का वैयावृत्त्य, नौ ब्रह्मचर्यगुप्ति, रत्नत्रय, बारह प्रकार का तप, चार कषाय-निग्रह, ये सब चरण कहलाते हैं / इन्हें 'चरणसत्तरि' भी कहते हैं / करण—चार प्रकार की पिण्डविशुद्धि, पाँच समिति, बारह भावनाएँ, बारह भिक्षुप्रतिमाएँ, पाँच इन्द्रियों का निरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन गुप्तियाँ तथा चार प्रकार का अभिग्रह, ये सत्तर भेद करण कहे जाते हैं। इन्हें 'करणसत्तरि' भी कहा जाता है / प्राचाराङ्ग के अन्तर्वर्ती कतिपय विषयों का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है--- गोचर---भिक्षा ग्रहण करने की शास्त्रोक्त विधि / विनय-ज्ञानी व चारित्रवान् का सम्मान करना। शिक्षा-ग्रहण-शिक्षा तथा आसेवन-शिक्षा, इन दोनों प्रकार की शिक्षाओं का पालन करना / भाषा--सत्य एवं व्यवहार भाषाएँ ही साधु-जीवन में बोली जानी चाहिए / अभाषा-असत्य और मिश्र भाषाएँ वर्जित हैं / यात्रा-संयम, तप ध्यान समाधि एवं स्वाध्याय में प्रवृत्ति करना / मात्रा--संयम की रक्षा के लिए परिमित आहार ग्रहण करना। वृत्ति-परिसंख्यान-विविध अभिग्रह धारण करके संयम को पुष्ट बनाना / वाचना-सूत्र में वाचनाएँ संख्यात ही हैं / अथ से लेकर इति तक शिष्य को जितनी बार नवीन पाठ दिया, लिखा जाए, उसे वाचना कहते हैं / अनुयोगद्वार–इस सूत्र में ऐसे संख्यात पद हैं, जिन पर उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय, ये चार अनुयोग घटित होते हैं। अनुयोग का अर्थ यहाँ प्रवचन है अर्थात् सूत्र का अर्थ के साथ संबंध घटित करना। अनुयोगद्वारों का आश्रय लेने से शास्त्र का मर्म पूरी तरह और यथार्थ रूप में समझा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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