Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 202
________________ श्रु तज्ञान ] [169 (4) तराचार-विश्न-कवायादि से मन को हटाने के लिए और राग-द्वेषादि पर विजय प्राप्त करने के लिए जिन-जिन उपायों द्वारा शरीर, इन्द्रिय और मन को तपाया जाता है, या इच्छाओं पर अंकुश लगाया जाता है, वे उपाय तप कहलाते हैं / तप के द्वारा असत् प्रवृत्तियों के स्थान पर सत् प्रवृत्तियाँ जीवन में कार्य करने लगती हैं तथा सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने पर प्रात्मा मुक्त बनती है। तप ही संवर और निर्जरा का हेतु तथा मुक्ति का प्रदाता है / इसके दो भेद हैं-बाह्य तथा ग्राभ्यंतर / दोनों के भी छह छह प्रकार हैं। वाह्य तप के निम्न प्रकार हैं: (1) अनशन–संयम की पुष्टि, राग के उच्छेद और धर्म-ध्यान को वृद्धि के लिये परिमित समय या विशिष्ट परिस्थिति में प्राजोवन आहार का त्याग करना / (2) ऊनोदरी-भूख से कम खाना / (3) वृत्ति-परिसंख्यान-एक घर, एक मार्ग अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप अभिग्रह धारण करना / इसके द्वारा चित्त-वृत्ति स्थिर होती है तथा आसक्ति मिट जाती है। (4) रसपरित्याग-रागवर्धक रसों का परित्याग करने से लोलुपता कम होती है। (5) कायक्लेश-शीत-उष्ण परोषह सहन करना तथा प्रातापना लेना कायक्लेश कहलाता है। इसे तितिक्षा एवं प्रभावना के लिए करते हैं। (6) इन्द्रियप्रतिसंलोनता--यह स्वाध्याय-ध्यान आदि की वृद्धि के लिए किया जाने वाला तप है। प्राभ्यन्तर तप इस प्रकार हैं (1) प्रायश्चित्त-पश्चात्ताप करते हुए प्रमादजन्य पापों के निवारण के लिए यह तप किया जाता है। (2) विनय---गुरुजनों का एवं उच्च चारित्र के धारक महापुरुषों का विनय करना तप है / (3) वैयावृत्त्य --स्थविर, रुग्ण, तपस्वी, नवदीक्षित एवं पूज्य पुरुषों की यथाशक्ति सेवा करना। (4) स्वाध्याय-पाँच प्रकार से स्वाध्याय करना / इसका महत्त्व अनुपम है। (5) ध्यान-धर्म एवं शुक्ल ध्यान में तल्लीन होना। (6) व्युत्सर्ग--ग्राभ्यंतर और बाह्य उपधि का यथाशक्ति परित्याग करना / इससे ममता में कमी और समता में वृद्धि होती है / इस प्रकार छह बाह्य एवं छह पाभ्यंतर तप मुमुक्षु को मोक्ष-मार्ग पर अग्रसर करते हैं / (5) वीर्याचार-वीर्य शक्ति को कहते हैं / अपनी शक्ति अथवा बल को शुभ अनुष्ठानों में प्रवृत्त करना वीर्याचार कहलाता है / इसे तीन प्रकार से प्रयुक्त किया जाता है / (1) प्रत्येक धार्मिक कृत्य में प्रमादरहित होकर यथाशक्य प्रयत्न करना / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253