Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Author(s): Devvachak, Madhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 190
________________ श्रुतज्ञान] [157 मिथ्याश्रु त एवं सभ्यश्च त पर विशेष विचार "एयाई मिच्छदिठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छासुयं / " बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि द्वारा रचे गए ग्रन्थ द्रव्य मिथ्याश्रत हैं, मिथ्यादृष्टि में भावमिथ्याश्रत होता है। दृष्टि गलत होने से ज्ञानधारा मलिन हो जाती है और ज्ञान सत्य नहीं होता। मिथ्यादृष्टि गलत ज्ञान धारा वाले तथा अध्यात्म मार्ग से भटके हुए होते हैं / इसलिये उनके कथनानुसार जो व्यक्ति चलता है वह भी मोक्ष-मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है। 'एयाइं चेव सम्मदिस्सि सम्मत्तपरिग्ग हियाई सम्मसुयं / ' मिथ्यादृष्टि द्वारा रचित ग्रन्थों को भी सम्यग्दृष्टि यथार्थ रूप से ग्रहण करता है तो उसके लिए मिथ्याश्रु त, सम्यक्श्रु तरूप में परिणत हो जाता है / ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार चतुर वैद्य अपनी विशिष्ट क्रियाओं के द्वारा विष को भी अमृत बना लेता है, हंस दूध को ग्रहण करके पानी छोड़ देता है तथा स्वर्ण को खोजने वाले मिट्टी में से स्वर्णकण निकालकर प्रसार को त्याग देते हैं। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि नय-निक्षेप आदि के विचार से मिथ्याश्र त को सम्यक् त रूप में परिणत कर लेता है / "अहवा मिच्छादिट्ठिस्सवि एयाइं चेव सम्मसुयं, कम्हा ?" सूत्र में कहा गया है कि मिथ्याश्रु त मिथ्यादृष्टि के लिए भी सम्यक्च त हो सकता है / वह इस प्रकार कि जब मिथ्यादृष्टि, सम्यक्दृष्टि के द्वारा अपने ग्रन्थों में रहो हुई पूर्वापरविरोधी तथा असंगत बातों को जानकर अपने गलत स्वपक्ष को छोड़ देता है तो सम्यक्दष्टि बन जाता है / इस प्रकार सम्यक्त्व का कारण होने से मिथ्याथ त भी सम्यक्च त रूप में परिणत हो जाता है। सादि, सान्त, अनादि, अनन्तश्र त ७८-से कि तं साइअं-सपज्जवसिअं? प्रणाइअं-अपज्जवसि च ? इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं वच्छित्तिनयट्टयाए साइग्रं सपज्जवसिग्रं, अन्धच्छित्तिनयट्ठयाए प्रणाइअं अपज्जवसिअं। तं समासपो चउन्विहं पण्णत्तं, तं जहा–दवप्रो, खित्तों,कालो, भावप्रो। तत्थ-(१) दध्वनो गं सम्मसुअं एगं पुरिसं पडुच्च साइमं सपज्जवसिग्रं, बहवे पुरिसे य पडुच्च प्रणाइयं अपज्जवसि / (2) खेत्तनो णं पंच भरहाई, पंचेरवयाई, पडुच्च साइयं सपज्जवसिअं, पंच महाविदेहाई पडुच्च प्रणाइयं अपज्जवसि।। (3) कालनो णं उस्सपिणि प्रोसपिणि च पडुच्च साइमं सपज्जवसिअं, नो उस्सप्पिणि नोमोसप्पिणि च पडुच्च अणाइयं अपज्जवसिनं / (4) भावप्रो णं जे जया जिणपन्नत्ता भावा आघविजंति, पण्णविज्जति, परूविज्जंति, दंसिज्जंति, निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति, तया (ते) भावे पडुच्च साइमं सपज्जवसिग्रं। खापोवसमिअं पुण भावं पड़च्च अणाइअं अपज्जवसिधे / अहया भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपज्जवसिग्नं च, अभवसिद्धियस्स सुयं प्रणाइयं अपज्जवसिगं (च)। सवागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अणंतगुणिनं पज्जवक्खरं निफज्जइ, सव्वजीवाणंपि प्र णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चग्धाडियो, जइ पुण सोऽवि श्रावरिज्जा, तेणं जीवो अजीवत्तं पाविज्जा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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