________________ मतिज्ञान ] [ 143 सूत्रकार ने 'पाएसेणं सव्वाई दवाइं जाणइ न पासइ' इसमें 'न पासइ' पद दिया है, किन्तु व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में ऐसा पाठ है-- "दव्वश्रो णं प्राभिणिबोहियनाणी पाएसेणं सम्बदव्वाइं जाणइ, पासइ।" ___ --भगवती सूत्र, श० 8, उ० 2, सू० 222 वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने इस विषय में कहा है कि 'मतिज्ञानी सर्व द्रव्यों को अवाय और धारणा की अपेक्षा से जानता है और अवग्रह तथा ईहा की अपेक्षा से देखता है, क्योंकि अवाय और धारणा ज्ञान के बोधक हैं तथा अवग्रह और ईहा, ये दोनों अपेक्षाकृत सामान्यबोधक होने से दर्शन के द्योतक हैं / अत: 'पासइ' पद ठीक ही है। किन्तु नन्दीसूत्र के वृत्तिकार लिखते हैं कि-'न पासई' से यह अभिप्राय है कि धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के सर्व पर्याय आदि को नहीं देखता। वास्तव में दोनों ही अर्थ संगत हैं। क्षेत्रतः—मतिज्ञानी आदेश से सभी लोकालोक क्षेत्र को जानता है, किन्तु देखता नहीं / कालत:-मतिज्ञानी आदेश से सभी काल को जानता है, किन्तु देखता नहीं। भावतः--प्राभिनिबोधिकज्ञानी आदेश से सभी भावों को जानता है, किन्तु देखता नहीं। प्राभिनिबोधिक ज्ञान का उपसंहार ६६---उग्गह ईहाऽवायो य, धारणा एव हंति चत्तारि / प्राभिणिबोहियनाणस्स, भेयवत्थू समासेणं / / ६६--प्राभिनिबोधिक-मतिज्ञान के संक्षेप में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा क्रम से ये चार भेदवस्तु-विकल्प होते हैं। ६७---प्रत्थाणं उग्गहणम्मि, उग्गहो तह बियालणे ईहा / __ववसायम्मि अवानो, धरणं पुण धारणं बिति / ६७--अर्थों के अवग्रहण को अवग्रह, अर्थों के पर्यालोचन को ईहा, अर्थों के निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय और उपयोग की अविच्युति, वासना तथा स्मृति को धारणा कहते हैं / ६८.--उग्गह इक्कं समयं, ईहावाया मुहूत्तमद्धतु। कालमसंखं संखं च, धारणा होइ नायव्वा // ६८-अवग्रह अर्थात् नैश्चयिक अवग्रह ज्ञान का काल एक समय, ईहा और अवायज्ञान का समय अर्द्धमुहूर्त (अन्तर्मुहूर्त) तथा धारणा का काल-परिमाण संख्यात व असंख्यात काल पर्यन्त समझना चाहिए। ६६-पुढे सुइ सद्द, रूवं पुण पासइ अपुट्ठतु। गंध रसं च फासं च, बद्ध पुट्ठ वियागरे / ६६-श्रोत्रेन्द्रिय के साथ स्पृष्ट होने पर ही शब्द सुना जाता है, किन्तु नेत्र रूप को विना स्पृष्ट हुए ही देखते हैं / यहाँ 'तु' शब्द का प्रयोग एवकार के अर्थ में है, इससे चक्षुरिन्द्रिय को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org