________________ 142] [नन्दीसूत्र मतिज्ञान पाँच इन्द्रियों और छठे मन के माध्यम से उत्पन्न होता है / इन छहों को अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के साथ जोड़ने पर चौबीस भेद हो जाते हैं / चक्षु और मन को छोड़कर चार इन्द्रियों द्वारा व्यंजनावग्रह होता है, अत: चौबीस में इन चार भेदों को जोड़ने से मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद हो जाते हैं / तत्पश्चात् अट्ठाईस को बारह-बारह भेदों से गुणित करने पर तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं / मतिज्ञान के ये तीन सौ छत्तीस भेद भी सिर्फ स्थूल दृष्टि से समझने चाहिये, वैसे तो मतिज्ञान के अनन्त भेद हैं। मतिज्ञान का विषय वर्णन ६५-तं समासपो चउन्विहं पणतं, तंजहा–दव्वरो, खित्तप्रो, कालओ, भावनो। (1) तत्थ दम्वनो णं प्राभिणिबोहिलनाणी पाएसेणं सवाई दवाई जाणइ, न पासइ / (2) खेत्तनो णं प्राभिणिबोहिअनाणो पाएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ, न पासइ / (3) कालो णं प्राभिणिबोहिअनाणो पाएसेणं सव्वं कालं जाणइ, न पासइ / (4) भावप्रो णं प्राभिगिबोहिनाणी पाएसेणं सवे भावे जाणइ, न पासइ / ६५-वह प्राभिनिबोधिक-मतिज्ञान संक्षेप में चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है / जैसे-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। (1) द्रव्य से मतिज्ञानो सामान्य प्रकार से सर्व द्रव्यों को जानता है, किन्तु देखता नहीं। (2) क्षेत्र से मतिज्ञानी सामान्य रूप से सर्व क्षेत्र को जानता है, किन्तु देखता नहीं। (3) काल से मतिज्ञानी सामान्यतः तीनों कालों को जानता है, किन्तु देखता नहीं। (4) भाव से मतिज्ञान का धारक सामान्यतः सब भावों को जानता है, पर देखता नहीं। विवेचन–इस सूत्र में मतिज्ञान के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से संक्षेप में चार भेद वर्णन किये गए हैं। जैसे--(१) द्रव्यतः--द्रव्य से प्राभिनिबोधिक ज्ञानी आदेश-सामान्य रूप से सभी द्रव्यों को जानता है, किन्तु देखता नहीं : यहाँ 'आदेश' शब्द का तात्पर्य है प्रकार / वह सामान्य और विशेष रूप, इन दो भेदों में विभाजित है, किन्तु यहाँ पर केवल सामान्यरूप ही ग्रहण करना चाहिये / अतः मतिज्ञानो सामान्य प्रदेश के द्वारा धर्मास्तिकायादि सर्व द्रव्यों को जानता है, किन्तु कुछ विशेषरूप से भी जानता है। आदेश का एक अर्थ श्रुत भी होता है। इसके अनुसार शंका हो सकती है कि श्रुत के आदेश से द्रव्यों का जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो श्रुतज्ञान हुया, किन्तु यहाँ तो प्रकरण मतिज्ञान का है। इस शंका का निराकरण यह है कि श्रुतनिश्रित मति को भी मतिज्ञान बतलाया गया है / इस विषय में भाष्यकार कहते हैं "आदेसो त्ति व सुतं, सुप्रोवलद्ध सु तस्स मइनाणं / पसरइ तभावणया, विणा वि सुत्तानुसारेणं // अर्थात् श्रुतज्ञान द्वारा ज्ञात पदार्थों में, तत्काल श्रुत का अनुसरण किये बिना, केवल उसकी वासना से मतिज्ञान होता है / अतएव उसे मतिज्ञान हो जानना चाहिए, श्रुतज्ञान नहीं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org