________________ 148] [मन्दीसूत्र (2) व्यंजनाक्षर-व्यंजनाक्षर वे कहलाते हैं, जो अकार, इकार आदि अक्षर बोले जाते हैं / विश्व में जितनी भाषाएँ बोली जाती हैं, उनके उच्चारणरूप अक्षर व्यंजनाक्षर कहलाते हैं / जैसे दीपक के द्वारा प्रत्येक वस्तु प्रकाशित होकर दिखाई देने लगती है, उसी प्रकार व्यंजनाक्षरों के द्वारा अर्थ समझ में आता है / जिस-जिस अक्षर की जो-जो संज्ञा होती है, उनका उच्चारण भी तदनुकूल हो, तभी वे द्रव्याक्षर, भावश्रुत के कारण बन सकते हैं / अक्षरों के सही मेल से शब्द बनता है, पद और वाक्य बनते हैं जिनके संकलन से बड़े-बड़े ग्रन्थ तैयार होते हैं। (3) लब्ध्यक्षर-शब्द को सुनकर अर्थ का अनुभवपूर्वक पर्यालोचन करना लब्धियक्षर कहलाता है / यही भावश्रु त है, क्योंकि अक्षर के उच्चारण से जो उसके अर्थ का बोध होता है, उससे ही भावच त उत्पन्न होता है। कहा भी है "शब्दादिग्रहणसमनन्तरमिन्द्रियमनोनिमित्तं शब्दार्थपर्यालोचनानुसारि शांखोऽयमित्यक्षरानुविद्ध ज्ञानमुपजायते इत्यर्थः / " अर्थात्-शब्द ग्रहण होने के पश्चात् इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो शब्दार्थ पर्यालोचनानुसारी ज्ञान उत्पन्न होता है, उसी को लब्ध्यक्षर कहते हैं।" यहाँ प्रश्न हो सकता है कि उपर्युक्त लक्षण संज्ञी जीवों में घटित हो सकता है किन्तु विकलेन्द्रिय एवं असंज्ञी जीवों में अकारादि वर्गों को सुनने की और उच्चारण कर सकने की शक्ति का अभाव है 1 उन जीवों के लब्धिअक्षर कैसे संभव हो सकता है ? उत्तर यह है कि श्रोत्रेन्द्रिय का अभाव होने पर भी तथाविध क्षयोपशम उन जीवों में अवश्य होता है / इसीलिये उनको अव्यक्त भावच त प्राप्त होता है। उन जीवों में, आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा होती हैं / संज्ञा अभिलाषा को कहते हैं, अभिलाषा ही प्रार्थना है / भय दूर हो जाय, यह प्राप्त हो जाय, इस प्रकार की चाह अथवा इच्छा अक्षरानुसारी होने से उनको भी नियम से लब्धिअक्षर होता है / वह छः प्रकार का है। (1) जीवशब्द, अजीवशब्द या मिश्रराब्द सुनकर कहने वाले के भाव को समझ लेना तथा गर्जना करने से, हिनहिनाने से अथवा भोंकने आदि के शब्दों से तिर्यंच जीवों के भावों को समझ लेना श्रोत्रेन्द्रिय लब्ध्यक्षर है। (2) पत्र, पत्रिका और पुस्तक आदि पढ़कर तथा औरों के संकेत व इशारे देखकर उनके अभिप्राय को जान लेना चक्षुरिन्द्रिय-लब्ध्यक्षर कहलाता है, क्योंकि देखकर उसके उत्तर के लिये, उसकी प्राप्ति के लिए अथवा उसे दूर करने के लिये जो भाव होते हैं वे अक्षररूप होते हैं। (3) विभिन्न जाति के फल-फूलों की सुगंध, पशु-पक्षी, स्त्री-पुरुष की गंध अथवा भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों की गंध को सूधकर जान लेना घ्राणेन्द्रिय लब्धि-अक्षर है। (4) किसी भी खाद्य पदार्थ को चखकर उसके खट्ट, मोठे, तीखे अथवा चरपरे रस से पदार्थ का ज्ञान कर लेना जिह्वन्द्रिय लब्ध्यक्षर कहलाता है / (5) स्पर्श के द्वारा शीत, उष्ण, हलके, भारी, कठोर अथवा कोमल वस्तुओं की पहचान कर लेना तथा प्रज्ञाचक्षु होने पर भी स्पर्श से अक्षर पहचान कर भाव समझ लेना स्पर्शन्द्रिय लब्ध्यक्षर कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org