________________ 108] [नन्दीसूत्र को स्वप्न में स्वर्ग तथा नरक के दृश्यं स्पष्ट दिखाए / स्वप्न देखने से पुष्पचला को प्रतिबोध हो गया और उसने सांसारिक सुखों का त्याग करके संयम ग्रहण कर लिया। अपने दीक्षाकाल में शुद्ध संयम का पालन करते हुए उसने घाती कर्मों का क्षयकर केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्तकर सदा के लिए जन्म-मरण से छुटकारा पा लिया / देवी पुष्पवती की पारिणामिकी बुद्धि का यह उदाहरण है। (5) उदितोदय-पुरिमतालपुर का राजा उदितोदय था / उसको रानी का नाम श्रीकान्ता था / दोनों बड़े धार्मिक विचारों के थे तथा श्रावकवृत्ति धारणकर धर्मानुसार सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक बार एक परिवाजिका उनके अन्तःपुर में आई। उसने रानी को शौचमूलक धर्म का उपदेश दिया। किन्तु महारानी ने उसका विशेष प्रादर नहीं किया, अतः परिवाजिका स्वयं को अपमानित समझ कर क्रुद्ध हो गई / बदला लेने के लिये उसने वाराणसी के राजा धर्मरुचि को चुना तथा उसके पास रानी श्रीकान्ता के अतुलनीय रूप-यौवन की प्रशंसा की। धर्मरुचि ने श्रीकान्ता को प्राप्त करने के लिये पुरिमतालपुर पर चढ़ाई को / चारों ओर घेरा डाल दिया। रात्रि को उदितोदय ने विचारा-"अगर युद्ध करूंगा तो भीषण नर-संहार होगा और असंख्य निरपराध प्राणी व्यर्थ प्राणों से हाथ धो बैठेंगे / अतः कोई अन्य उपाय करना चाहिए।" जन-संहार को बचाने के लिये राजा ने वैश्रमण देव की आराधना करने का निश्चय किया तथा अष्टमभक्त ग्रहण किया / अष्टमभक्त की समाप्ति होने पर देव प्रकट हुना और राजा ने उसके समक्ष अपना विचार रखा / राजा की उत्तम भावना देखकर वैश्रमण देवता ने अपनी वैक्रिय शक्ति के द्वारा पुरिमतालपुर नगर को ही अन्य स्थान पर ले जाकर स्थित कर दिया। इधर अगले दिन जब धर्मरुचि राजा ने देखा कि पुरिमतालपुर नगर का नामोनिशान ही नहीं है। मात्र खाली मैदान दिखाई दे रहा है तो निराश और चकित हो सेना सहित लौट चला / उदितोदय की पारिणामिकी बुद्धि ने सम्पूर्ण नगर की रक्षा की। (6) साधु और नन्दिषेण-नन्दिषेण राजगृह के राजा श्रेणिक का पुत्र था। विवाह के योग्य हो जाने पर श्रेणिक ने अनेक लावण्यवती एवं गुण-सम्पन्न राजकुमारियों के साथ उसका विवाह किया तथा उनके साथ नन्दिषेण सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। एक बार भगवान महावीर राजगृह नगर में पधारे / राजा सपरिवार भगवान के दर्शनार्थ गया / नन्दिषेण एवं उसकी पत्नियाँ भी साथ थीं। धर्मदेशना सुनी / सुनकर नन्दिषेण संसार के नश्वर सुखों से विरक्त हो गया। माता-पिता की अनुमति प्राप्त कर उसने संयम अंगीकार कर लिया। अत्यन्त तीव्र बुद्धि होने कारण मुनि नन्दिषेण ने अल्पकाल में ही शास्त्रों का गहन अध्ययन किया तथा अपने धर्मोपदेशों से अनेक भव्यात्माओं को प्रतिबोधित करके मुनिधर्म अंगीकार कराया। भगवान महावीर की प्राज्ञा लेकर अपनी शिष्यमंडली सहित मुनि नन्दिषेण ने राजगृह से अन्यत्र विहार कर दिया। बहुत काल तक ग्रामानुग्राम विचरण करने पर एक बार मुनि नन्दिषेण को ज्ञात हुआ कि उनका एक शिष्य संयम के प्रति अरुचि रखने लगा है तथा पुनः सांसारिक सुख भोगने की इच्छा रखता है / कुछ विचार कर नन्दिषेण ने शिष्य-समुदाय सहित पुन: राजगृह की ओर प्रस्थान किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org