________________ 138] [नन्दीसूत्र निश्चयपूर्वक सुने हुए शब्दों को वह संख्यात अथवा असंख्यात काल तक धारण किए रहता है / तब वह धारणा कहलाती है। प्रतिबोधक और मल्लक, इन दोनों दृष्टान्तों का सम्बन्ध यहाँ केवल श्रोत्रेन्द्रिय के साथ है। उपलक्षण से प्राण, रसना और स्पर्शन का भी समझ लेना चाहिये / अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा श्रुतज्ञान का निकटतम सम्बन्ध श्रोत्रेन्द्रिय से है / आत्मोत्थान और आत्म-कल्याण में भी श्रुतज्ञान की प्रधानता है, अतः यहाँ श्रोग्रेन्द्रिय और शब्द के योग से व्यंजनावग्रह तथा अर्थावग्रह का उल्लेख किया गया है। अवग्रहादि के छह उदाहरण ६४-से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सद्द सुणिज्जा, तेणं 'सद्दो' ति उग्गहिए, नो चेवणं जाणइ, 'के बेस सद्दाइ' ? तो ईहं पविसइ, तओ जाणइ 'प्रमुगे एस सद्दे / ' तो णं अवायं पविसइ, तओ से अवगयं हवइ, तपो धारणं पविसइ, तो गं धारेइ संखिज्ज वा कालं असंखिज्जं वा कालं / से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं रूवं पासिज्जा, तेणं 'रूवं' ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ 'के वेसरूवं' ति ? तो ईहं पविसइ, तो जाणइ 'अमगे एस रूवेत्ति' तो अवायं पविसइ, तो से उवगयं भवइ, तपो धारणं पविसइ, तपो णं धारेइ, संखेज्जं वा कालं असंखिज्जं वा कालं। से जहानामए के पुरिसे अध्चत्तं गंधं अग्धाइज्जा, तेणं 'गंधे' ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ 'के वेस गंधे ति? तो ईहं पविसइ, तो जाणइ 'अमुगे एस गंधे।' तमो अवायं पविसइ, तनो से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तो गं धारेइ संखेज वा कालं असंखेज्जं वा कालं / से जहानामए केइ पूरिसे अव्वत्तं रसं प्रासाइज्जा, तेणं 'रसो' ति उग्गहिए, नो गेवणं जाणइ 'के वेस रसे' त्ति? तो ईहं पविसइ, तो जाणइ 'अमगे एस रसे' / तयो प्रवायं पविसइ, तनो से उवमयं हवइ, तो धारणं पविसइ, तो गंधारेइ संखिज्ज वा कालं-असंखिज्ज वा कालं। से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं फासं पडिसंवेइज्जा, तेणं 'फासे' ति उम्गहिए, नो चेव ण जाणइ 'के वेस फासो' त्ति ? तो ईहं पविसई, तओ जाणई 'प्रमुगे एस फासे।' तो अवार्य पविसइ, तपो से उवयं हवइ, तो धारणं पविसइ, तो गंधारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेनं वा कालं। से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सुमिणं पासिज्जा, तेणं 'सुमिणे' ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ के वेस सुमिणे' त्ति ? तो ईहं पविसइ, तओ जाणइ 'अमुगे एस सुमिणे / ' तमो अवायं पविसइ, तो से उवगयं होइ, तो धारणं पविसइ, तो धारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेज्जं वा कालं / से तं मल्लगदिट्टतेणं / ६४--जैसे किसी पुरुष ने अव्यक्त शब्द को सुनकर 'यह कोई शब्द है' इस प्रकार ग्रहण किया किन्तु वह यह नहीं जानता कि 'यह शब्द क्या-किसका है ?' तब वह ईहा में प्रवेश करता है, फिर यह जानता है कि 'यह अमुक शब्द है / ' फिर अवाय अर्थात् निश्चय ज्ञान में प्रवेश करता है / तत्पश्चात् उसे उपगत हो जाता है और फिर वह धारणा में प्रवेश करता है, और उसे संख्यात काल और असंख्यातकाल पर्यन्त धारण किये रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org