________________ 122] [नन्वीसून युवकों ने तुरन्त उत्तर दिया- "ऐसे व्यक्ति के टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहिए।" राजा ने यही प्रश्न दरबार के अनुभवी वृद्धों से भी किया। उन्होंने सोच विचारकर उत्तर दिया- "देव ! जो व्यक्ति आपके मस्तक पर चरणों से प्रहार करे उसे प्यार करना चाहिए तथा वस्त्राभूषणों से लाद देना चाहिये।" वद्धों का उत्तर सूनकर नवयुवक आपे से बाहर हो गये / राजा ने उन्हें शांत करते हुए उन वृद्धों से अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये कहा। एक बुजुर्ग दरबारी ने उत्तर दिया--"महाराज! आपके मस्तक पर चरणों का प्रहार आपके पुत्र के अलावा और कौन करने का साहस कर सकता है ? और शिशु राजकुमार को भला कौन-सा दंड दिया जाना चाहिए ?" __वृद्ध का उत्तर सुनकर सभी नवयुवक अपनी अज्ञानता पर लज्जित होकर पानी-पानी हो गये / राजा ने प्रसन्न होकर अपने वयोवृद्ध दरबारियों को उपहार प्रदान किये तथा उन्हें ही अपने पदों पर रखा। युवकों से राजा ने कहा--"राज्यकार्य में शक्ति की अपेक्षा बुद्धि की आवश्यकता अधिक होती है।" इस प्रकार वृद्धों ने तथा राजा ने भी अपनी पारिणामिकी बुद्धि का परिचय दिया। १७--प्राँवला--एक कुम्हार ने किसी व्यक्ति को मूर्ख बनाने के लिये पीली मिट्टी का एक या जो ठीक आँवले के सदश ही था। अाँवला हाथ में लेकर वह व्यक्ति विचार करने लगा-"यह प्राकृति में तो आँवले जैसा है, किन्त कठोर है और यह ऋतु भी प्रावलों की नहीं है।" अपनी पारिणामिकी बुद्धि से उसने आँवले की कृत्रिमता को जान लिया और उसे फेंक दिया। १८-मणि-किसी जंगल में एक मणिधर सर्प रहता था। रात्रि में वह वृक्ष पर चढ़कर पक्षियों के बच्चों को खा जाता था। एक बार वह अपने शरीर को संभाल नहीं सका और वक्ष से नीचे गिर पड़ा। गिरते समय उसकी मणि भी वृक्ष की डालियों में अटक गई। उस वृक्ष के नीचे एक कुना था। मणि के प्रकाश से उसका पानी लाल दिखाई देने लगा। प्रातःकाल एक खेलता हुआ उधर प्रा निकला और कुए के चमकते हुए पानी को देखकर घर जाकर अपने वृद्ध पिता को बुला लाया / वृद्ध पिता पारिणामिकी बुद्धि से सम्पन्न था। उसने पानी को देखा और जहाँ से पानी का प्रतिबिंब पड़ता था, वृक्ष के उस स्थान पर चढ़कर मणि खोज लाया / अत्यन्त प्रसन्न होकर पिता पुत्र घर की ओर चल दिये। १९–सर्प-भगवान् महावीर ने दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् प्रथम चातुर्मास अस्थिक ग्राम में किया तथा चातुर्मास के पश्चात् श्वेताम्बिका नगरी की ओर विहार कर दिया / कुछ आगे बढ़ने पर ग्वालों ने उनसे कहा-"भगवन् ! आप इधर से न पधारें क्योंकि मार्ग में एक बड़ा भयंकर दृष्टिविष सर्प रहता है, जिसके कारण दूर-दूर तक कोई भी प्राणी जाने का साहस नहीं करता। आप श्वेताम्बिका नगरी के लिए दूसरा मार्ग ग्रहण करें।" भगवान् ने ग्वालों की बात सुनी पर उस सर्प को प्रतिबोध देने की भावना से वे उसी मार्ग पर आगे बढ़ गये / / __ चलते-चलते वे विषधर सर्प की बाँबी पर पहुँचे और वहीं कायात्सर्ग में स्थिर हो गए। कुछ क्षणों के पश्चात् ही नाग बाहर आया और अपने बिल के समीप ही एक व्यक्ति को खड़े देखकर क्रोधित हो गया। उसने अपनी विषैली दृष्टि भगवान् पर डाली किन्तु उन पर कोई असर नहीं हुआ। यह देखकर सप ने आगबबूला होकर सूर्य की ओर देखा तथा फुफकारते हुए पुन: विषाक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org