________________ मतिज्ञान] [91 माँगी। किन्तु भिक्षु टाल-मटोल करने लगा और आज-कल करके समय निकालने लगा। व्यक्ति बड़ो चिन्ता में था कि किस प्रकार भिक्षु से अपनी अमानत निकलवाऊँ / संयोगवश एक दिन उसे कुछ जारी मिले / बातचीत के दौरान उसने अपनी चिन्ता उन्हें कह सुनाई / जुआरियों ने उसे आश्वासन देते हुए उसकी अमानत भिक्षु से निकलवा देने का वायदा किया और कुछ संकेत करके चले गये / अगले दिन जुआरी गेरुए रंग के कपड़े पहन, संन्यासी का वेश बनाकर उस भिक्षु के पास पहुँचे और बोले-"हमारे पास ये सोने की कुछ खूटियाँ हैं, आप इन्हें अपने पास रखलें / हमें विदेश-भ्रमण के लिए जाना है। आप बड़े सत्यवादी महात्मा हैं, अतः आपके पास ही धरोहर रखने पाए हैं।” साधु-वेशधारी वे जुग्रारी भिक्षु से यह बात कह ही रहे थे कि उसी समय वह व्यक्ति भी पूर्व मंकेतानुसार वहाँ आ गया और बोला-"महात्मा जी ! वह हजार मोहरों वाली थैली मुझे वापिस दे दीजिए।" भिक्षु संन्यासियों के सामने अपयश के कारण तथा सोने की खूटियों के लोभ के कारण पहले के समान इन्कार नहीं कर सका और अन्दर जाकर हजार मोहरों वाली थैली ले आया। थैली उसके स्वामी को मिल गई / वे धूर्त संन्यासी किसी विशेष कार्य याद आ जाने का बहाना कर चलते बने / जुआरियों की पौत्पत्तिकी बुद्धि के कारण उस व्यक्ति को अपनी अमानत वापिस मिल गई। धूर्त भिक्षु हाथ मलता रह गया। (23) चेटकनिधान-दो व्यक्ति आपस में घनिष्ठ मित्र थे / एक बार वे दोनों शहर से बाहर जंगल में गये हुए थे कि अचानक उन्हें वहाँ एक गड़ा हुआ निधान उपलब्ध हो गया। दोनों निधान पाकर बहुत प्रसन्न हुए / उनमें से एक ने कहा-"मित्र ! हम बड़े भाग्यवान हैं जो अकस्मात् ही हमें निधान मिल गया / पर इसे हम आज नहीं, कल यहाँ से ले चलेंगे / कल का दिन बड़ा शुभ है / " दूसरे मित्र ने सहज ही उसकी बात मान ली और दोनों अपने-अपने घर पा गए। किन्तु जिसने धन अगले दिन लाने का सुझाव दिया था वह बड़ा मायावी और धर्त था। वह रात को ही पून: जंगल में गया और सारा धन वहाँ से निकालकर उस स्थान पर कोयले भर कर चला आया। अगले दिन दोनों पूर्व निश्चयानुसार निधान की जगह पहुँचे पर धन होता तो मिलता / वहाँ तो कोयले ही कोयले थे। यह देखकर कपटी मित्र सिर और छाती पीट-पीट कर रोने और कहने लगा "हाय, हम कितने भाग्यहीन हैं कि देव ने धन देकर भी हमसे छीन लिया और उसे कोयला कर दिया " इसी तरह बार-बार कहता हुआ वह चोर नजरों से मित्र की ओर देखता जाता था कि उस पर क्या प्रतिक्रिया हो रही है ! दूसरा मित्र सरल अवश्य था किन्तु इतना मूर्ख नहीं था / अपने मित्र के बनावटी विलाप को वह समझ गया और उसे विश्वास हो गया कि इस धूर्त ने ही धन निकालकर यहाँ कोयले भर दिये हैं। फिर भी उसने अपने कपटी मित्र को सान्त्वना देते हुए कहा"मित्र ! रोप्रो मत, अब दुःख करने से निधान वापिस थोड़े ही आएगा !" तत्पश्चात् दोनों अपनेअपने घर लौट आए, किन्तु सरल स्वभावी मित्र ने भी अपने मायावी मित्र को सबक सिखाने का निश्चय कर लिया। उसने एक प्रतिमा उसकी बनवाई जो बिल्कुल उसी की शक्ल से मिलती थी। धूर्त मित्र की प्रतिमा को उसने अपने घर पर रख लिया और दो बंदर पाले / वह बंदरों के खाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org